गर्मी बे-इन्तेहा

गर्मी बे-इन्तेहा

हर तरफ़ सूरज आग उलग रहा है, पारा चालीस से पार है।

कहीं बयालीस, कहीं पैंतालीस-अड़तालीस तो कहीं पचास के भी पार है!

गर्मी से हर इंसान, जानवर, पेड़ और पौधे भी बेहाल हैं!

तन से, मन से, धरती से और गगन से पानी हर तरफ़ से सूखता चला जा रहा है...

तपती गर्मी में जल का तो निशान नहीं... बस, हर तन और मन बेबस सा जल रहा है!

हर ओर तपिश है, हर तरफ़ हाहाकार है!

कल शाम सड़क किनारे देखे कुछ कुत्ते, जो फुटपाथ की मिट्टी खोदे, बैठे थे उसमें बड़े आराम से!

‘मिट्टी में प्राकृतिक कूलिंग होती है, सारी गर्मी, सारी जैवीय गंदगी भी वो समा लेती है अपने भीतर,’

सुना था ऐसा बचपन में अपनी माँ से...

बताती थी वह, इसीलिए उनके बचपन में मिट्टी के घर होते थे, जो गर्मियों में सर्द और सर्दियों में गर्म से महसूस होते थे!

याद कर मुस्कुराई, और चल पड़ी सीमेंट के अपने दहकते मकान में।

आज देखा, कुछ समझदार इंसान आए जिन्होंने कुछ सफ़ाई-पसंद इंसानों के आदेश पर,

गंदी सी दिखने वाली मिट्टी को ढांप दिया सीमेंट से बनी चमकती टाइल से।

जल्दी ही वहाँ प्लास्टिक के ख़ाली कैन, और ख़ाली बोतलें थीं...

चिप्स के ख़ाली पैकेट, पान की पीक और सिगरेट के टुकड़ों की भरमार थी।

एक कोने से पेशाब की दुर्गंध भी आ रही थी...

आख़िर, वो चमकती टाइल है... वह कहाँ कुछ अपने भीतर समा पाती है?

जानती हूँ, आज के दौर में मिट्टी के घर जमा पाना मुमकिन ही नहीं है...

लेकिन जहाँ थोड़ी-बहुत मिट्टी बची है, उसे संभालना भी इतना कठिन तो नहीं है?

कुछ तो ठंडक बची रहेगी...

कुछ तो राहत मिलती रहेगी...

कुछ भूमिगत जल-स्तर बढ़ता रहेगा...

कुछ तो पेड़-पौधे पनपते रहेंगे...

हमें कुछ आश्रय, कुछ छाया तो मिलती रहेगी...

फिर, कुछ और दिन जीवन बचा तो रहेगा!

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