घरौंदे मिट्टी के…

घरौंदे…

दीपावली की तैयारियों में मिली होती थी जब मिट्टी की ख़ुशबू…

उस समय, दीपावली के काफ़ी पहले से दीपावली की तैयारियाँ होने लगती थीं… आज भी होती हैं, पर रूप थोड़ा बदल गया है। कहीं-कहीं घरों की मरम्मत होती, और फिर चूने की सफ़ेदी। गमलों पर, क्यारियों के किनारे लगे ईंटों पर गेरू की पुताई।

इन्हीं सब तैयारियों के बीच एक नन्हा मन मिट्टी का घरौंदा बना लेता। घर की छत या आँगन के किसी कोने में ईंटों पर मिट्टी का लेप चढ़ा दीवारें बना लेता। उनके ऊपर किसी पत्थर के टुकड़े की छोटी-सी, टेढ़ी-मेढ़ी-सी, पर प्यारी सी छत बना लेता। ईंट के छोटे टुकड़ों से घरौंदे की दूसरी मंज़िल भी तैयार हो जाती। लकड़ी या पत्थर की पतली पट्टी पर मिट्टी की परत से सीढ़ियाँ भी बन जातीं। माचिस की तीलियों से छत के बारजे बन जाते, और छोटे-छोटे दीप कहीं बारजों, छज्जों पर सज जाते।

बाज़ारों में मिट्टी के दीयों के साथ ही मिट्टी के खिलौने भी मिलते, जिनसे घरौंदे की साज-सज्जा में चार-चाँद लग जाते। दीपावली पर घरौंदे के हर कोने में छोटे-छोटे दीप जगमगा उठते। दीपों की उस जगमग से एक नन्हा सा मन भी जगमगा उठता…

बड़ों की दीपावली के साथ ही एक कोने में कहीं एक बालमन की नन्हीं सी दीपावली भी मन रही होती।

दीपावली बीतने पर भी घरौंदे की साफ़-सफ़ाई का पूरा ध्यान रखा जाता और स्कूल से समय मिलते ही घरौंदे में झाडू-बुहारू भी होती रहती। 

मिट्टी के छोटे से चूल्हे पर खाना भी बनता और छोटे-छोटे बर्तनों में खाना भी परोसा जाता। कभी घर की बनी रोटी के छोटे-छोटे टुकड़ों से काम चलाया जाता, तो कभी सचमुच मोमबत्ती की लौ में छोटे से मिट्टी के चूल्हे पर, लोहे की नन्हीं सी कढ़ाई में आटे का हलवा भी बनाकर परोस दिया जाता!

मिट्टी के छोटे-से टी-सेट में पानी की झूठ-मूठ की चाय पी जाती… और, ऐसा करते समय बड़ों की तरह बातचीत करना कभी न भूलते!  

गर्मी की छुट्टी में इन मिट्टी के घरौंदों की फिर से साफ़-सफ़ाई होती। साज-सजावट की जाती, और गुड़िया-गुड्डों की सगाई, शादी की जाती! गीत-संगीत भी बजता, नाच-गाना भी होता, जयमाला भी होती और फेरे भी लगते, और विदाई में गुड़िया वाले गुड़िया को गले लगाकर बाक़ायदा रोते!

खुली छत या आंगन में बने मिट्टी के ये घरौंदे बारिश के पानी में घुलने लगते… और, नन्हा मन बस बेबस सा देखता रह जाता।

अगली दीपावली पर घरौंदे की फिर से साज-सजावट की आस भी बनी रहती। दीपावली में फिर से घरौंदे की मरम्मत होती… या नया घरौंदा बनता। फिर से रंगाई, पुताई होती, सारी साज-सजावट होती…

और एक साल में एक बचपन पूरा एक जीवन जी लेता…

सपनीला बचपन ज्यों-ज्यों पीछे छूटता गया, मिट्टी की ख़ुशबू से सराबोर जीवन भी पीछे छूटने लगा।

नए सपनों ने घर बनाना शुरू किया, इनमें मिट्टी की ख़ुशबू शायद ही कहीं होती थी…

कहीं किताबों की सोंधी महक तो कहीं ज़िन्दगी की गंभीरता की झलक मिलने लगी थी।

समय की परत धूल बन उन नन्हें मिट्टी के घरौंदों पर भी चढ़ गई… कहीं टूट-फूट हुई तो कहीं से बेरंग हो गए। साज-सजावट की जगह खंडहर की वीरानगी छा गई… उलझा बालमन चुपके से वयस्कता की चादर में छुप, आँखें मूंदे सो गया।  

घर की छत पर, आँगन के किसी कोने में, मिट्टी के ये घरौंदे अब भी कहीं उदास से बैठे हैं… जिन्हें आज भी उस दीपावली का इंतज़ार है… जब, फिर से उनकी साफ़-सफ़ाई होगी, फिर से नया रंग चढ़ेगा, फिर से साज-सज्जा होगी, और फिर दीपों से उनका हर कोना जगमगा उठेगा… और, वयस्क-हृदय के एक कोने में कहीं सोया हुआ बालमन हौले से मुस्कुरा उठेगा!  

तस्वीर-स्रोत : इंटरनेट। जिनकी भी है, उन्हें ह्रदय से आभार… यह तस्वीर अनगिनत यादों के साथ ह्रदय में मुस्कुरा उठी!