पिता (लघुकथा)

पिता

बाबूजी की तबियत दिनों दिन बिगड़ती जा रही थी। हम सारे भाई-बहन लगभग रोज़ ही उनके पास होते। अभी कुछ ही समय पहले तो हमने माँ को खोया था… आज बाबूजी भी उसी दर्द, उसी पीड़ा से गुज़र रहे थे… ऐसा दर्द, ऐसी पीड़ा जिसे कोई बाँट नहीं सकता था! हम सब बस दर्शक की तरह उन्हें दर्द से उलझते देखते…

जिन्होंने अपने मज़बूत कंधों पर परिवार की बड़ी से बड़ी ज़िम्मेदारियाँ सहजता से उठा रखी थीं, जो पूरे परिवार के लिए एक मज़बूत स्तंभ रहे थे… जिनके दर्द तो कभी किसी को पता ही नहीं चले… बस, यही नज़र आता रहा कि वे कैसे तत्परता से हम सभी मुश्किलें आसान कर देते थे… जो समाज की ओर अपने दायित्वों से कभी भी पीछे नहीं हटते थे… उन्हें इतना कमज़ोर, इतना आश्रित देखना दिल मंज़ूर ही नहीं कर पा रहा था!

यह सब देखने के लिए मन तैयार ही नहीं हो पा रहा था। दिल के किसी कोने में कहीं न कहीं आने लगा था… इस तकलीफ़ से तो अच्छा ही होता, ईश्वर उन्हें छुटकारा दे देता… रोज़-रोज़ के दर्द से तो छुट्टी मिलती… जीवन का क्या है? यह तो जीर्ण शरीर है… आत्मा तो अजर-अमर है! कहाँ जाएगी? हमारे पास ही रहेगी… माता-पिता कहाँ कभी अपने बच्चों को छोड़कर जाते हैं? हाँ, सच है कि याद आएगी… लेकिन जब-जब हम आँखें मूंदेंगे, बाबूजी हमारे सामने ही खड़े होंगे! भले ही शरीर से साथ न होंगे, लेकिन यादों से कहाँ जाएँगे?

दो दिन बाद…
बाबूजी नहीं रहे। आँखें बरसीं, मन दुखी हुआ, किन्तु कहीं न कहीं मन आश्वस्त भी था! उन्हें शरीर के असीमित दर्द से छुटकारा मिल गया था। यादों से हम निपटारा कर लेंगे, लेकिन उस लोक में बाबू जी ख़ुश होंगे, यह विश्वास था।

आज…
बाबूजी को गए हुए क़रीब चार बरस होने को है।
आज भी हर दोराहे पर ऐसा क्यों लगता है, कि बाबूजी कहीं से आ जाएँ, और सही राह बता जाएँ!
जब भी मन किसी उलझन में फँसता है, तो क्यों लगता है, ‘काश, बाबूजी अभी कुछ समय और साथ रह लिए होते!’