अंडमान यात्रा वृत्तांत – दिवस एक

पोर्ट ब्लेयर, अंडमान में पहला दिन

लंबे अरसे से अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह जाने की इच्छा थी... वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य के विषय में इतना कुछ जो सुना था। साथ ही, देखना था सेलुलर जेल... उन हालातों की कल्पना करके कुछ समझने की कोशिश करनी थी, कि हमारे देशवासियों को आज़ादी की माँग करने पर किन हालातों में रखा जाता था, तथाकथित भद्र कौम उन देशभक्तों के साथ कैसा अभद्र व्यवहार करते थे।

वैसे, किसी भी जगह या हालातों की कल्पना आप कितनी भी कर लें, प्रत्यक्ष देखे बगैर उन हालातों को समझना बहुत ही कठिन होता है।

तो, अंडमान में पोर्ट ब्लेयर पहुँचते ही, हमने समुद्र तट पर बसे ख़ूबसूरत मेगापॉड रिसॉर्ट के अपने कमरे में सामान रखा और अपनी पसंद के स्वादिष्ट, विशुद्ध शाकाहारी भोजन के बाद हम सबसे पहले सेलुलर जेल जा पहुँचे। यात्रा की थकान तो ज़रूर थी, लेकिन यहाँ जोड़ना ज़रूरी लग रहा है, कि वहाँ की हवा में कुछ अजब सी ताज़गी और शांति थी। ऐसी, जो मन में केवल सुकून ही भर दे... किसी तरह का कोई तनाव नहीं...

सेलुलर जेल का सामान्य इतिहास यों तो अधिकतर लोगों को पता ही है। स्वतंत्रता संग्राम के अनेक सेनानियों को यहाँ क्रूर से भी क्रूरतम यातनाएँ दी जातीं...

1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेज़ों ने भारतीयों के भीतर आज़ादी पाने की ललक महसूस की, और साथ ही उनकी इन भावनाओं को भरपूर रौंदने का भी निर्णय लिया। इसी क्रम में उन्होंने देशभक्तों को सज़ा के तौर पर अंडमान भेजना शुरू कर दिया, और जल्दी ही 1893 (या, 1896?) में सेलुलर जेल की नींव रखी गई। [मैंने वहाँ अभिलेखों में कहीं 1893 पढ़ा था, जबकि पुष्टि के लिए इंटरनेट पर देखा तो 1896 दिखाता है]

अंग्रेज़ों ने राष्ट्रवादियों को कठोरतम सज़ा देने के लिए विशेष रूप से इस जेल का निर्माण करवाया... सौ साल से भी अधिक समय पहले, पाँच लाख से भी अधिक रूपए खर्च करके!

[ध्यान रहे- उस समय जब सामान्य लोगों की पगार पाँच-दस रुपए होती थी, शायद हम समझ सकते हैं, कि आज की तुलना में उस समय के पाँच लाख की कीमत क्या रही होगी। साथ ही, हमें याद रहे, वे पाँच लाख हमारे देश के थे, अंग्रेज़ों के नहीं।]

जेल परिसर के सामने एक वीर सावरकर पार्क है, जिसमें राष्ट्रवादियों की आदमकद मूर्तियाँ आपका ध्यान बरबस ही आकर्षित करती हैं।

जेल परिसर में प्रवेश करने पर दाहिनी ओर एक छोटा सा संग्रहालय बनाया गया है, जिसमें तस्वीरों और उस समय के कुछ सामानों, कपड़ों वगैरह के साथ जेल का संक्षिप्त इतिहास पिरोया गया है।

संग्रहालय से बाहर निकलने पर बाँई ओर से रास्ता आगे जाता है। इस मार्ग के बाँई ओर स्वातंत्र्य ज्योत प्रज्ज्वलित हैं, और दाहिनी ओर एक पुराना पीपल का पेड़ है। पता चला कि यह पीपल जेल के निर्माण के पहले से ही यहाँ मौजूद है। जेल निर्माण में तमाम पेड़ काटने के बावजूद, किस्मत से बच गया। इस पीपल के नीचे बने चबूतरे पर एक छोटी सी पीली-सफ़ेद बिल्ली बैठी अपनी चटाई-सफ़ाई में लगी थी, कि मेरी नज़र उसपर पड़ी, और उसकी मुझपर। मैंने पूछा, “अरे, तुम यहीं रहती हो?” उसने कहा, “आंऊ” और वापस अपने काम में व्यस्त हो गई। मैं समझ गई, उसे मुझ जैसों से कोई वास्ता नहीं। उसकी अदा पर रीझी और उसके अवहेलना से आहत हुए बिना मैं आगे बढ़ी।

[सच कहूँ, तो जेल के अन्दर जाकर वहाँ तत्कालीन यातनाओं के प्रदर्शन की कल्पना मात्र से मन थोड़ा संकुचित था।]

सेलुलर जेल का निर्माण कुछ ऐसा है कि केंद्र में एक चार मंज़िली मीनार जैसा भवन निर्मित है, जो सात ओर से सात तीन मंज़िले भवनों से जुड़ा हुआ है। इन सातों भवनों में पहुँचने का रास्ता केंद्र वाले भवन से ही जाता था... ‘था’  इसलिए क्योंकि अब स्मारक के लिए केवल तीन भवन ही रोके गए हैं, और पीछे की ओर स्थित शेष चार का पुनर्निर्माण करके उसमें अस्पताल बना दिया गया है।

स्मारक में दो भवनों के बीच के स्थान में सज़ा देने के कुछ तरीकों को मूर्तियों आदि के ज़रिए प्रस्तुत करने का जीवंत प्रयास किया गया है। इन्हीं में एक जगह एक क्रांतिकारी के हाथ-पाँव बांधकर उनपर कोड़े बरसाने का दृश्य है, और बड़े से हॉल जैसी जगह पर कोल्हू में जोते हुए क्रांतिकारियों को दिखाया गया है।

 

जिन्हें जानकारी न हो, उनके लिए- कोल्हू तेल निकालने की एक मशीन जैसी होती थी, जिसमें पुराने समय में दो बैलों को जोतकर तेल निकाला जाता था। सेलुलर जेल में बैलों की जगह उन राष्ट्रवादियों को जोता जाता था जिनका एकमात्र गुनाह था कि वे अपने देश में आज़ादी की साँस लेना चाहते थे। बैल की जगह इंसान! 

भूल नहीं सकते कि उन अत्याचारियों के पक्ष में हमने भी हिटलर का विरोध किया था... हमारे साथ क्या इनका रवैया हिटलरी व्यवहार से कोई कम था? आज तो आतंकवादियों के साथ भी मानवाधिकार खड़ा हो जाता है!

चलिए, इस बात को नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ भी जाएँ... लेकिन गुज़ारिश है कि कम से कम ये तो न भूलें कि हमें आज़ादी दिलाने के लिए उन हज़ारों लाखों देशवासियों ने, हमारे पूर्वजों ने क्या-क्या दर्द झेले... कितनी यातनाएँ सहीं, कितनी तकलीफ़ें उठायीं!

जबकि, वर्तमान में हममें से अनेक अक्सर कह देते हैं, कि अंग्रेज़ों ने आकर हमारे देश का आधुनिक विकास किया!

विकास की कहानी का एक रूप यह भी है- उस द्वीप में जिन राष्ट्रवादियों के साथ दिन-रात जानवरों की तरह व्यवहार होता था, कंकड़ भरा थोड़ा सा खाना मिलता था, और पीने के लिए गंदा, मटमैला बदबूदार पानी, और उसी के ठीक सामने अंग्रेज़ों ने अपने रहने के लिए रॉस आइलैंड बसाया था, जिसमें ऐशो-आराम की और चीज़ों के अलावा, आधुनिक तकनीकों से भरपूर स्वीमिंग पूल भी था!

एक ओर जिनका अपना देश है, उनके लिए पीने का साफ़ पानी भी नहीं, और दूसरी ओर स्वीमिंग पूल की विलासिता!

ये होता है विकास! और यह था, सभ्य समाज में मानवाधिकार! जिस देश के पैसे पर स्वीमिंग पूल में रंगरेलियाँ मना रहे थे, उसी देश की आज़ादी की आवाज़ उठाने वालों को पीने के लिए साफ़ पानी भी नहीं दिया जाता था। यातनाओं से मारें, या बीमार करके... फ़र्क कितना है?

खैर, जेल के बैरकों में चलते हैं... भूतल को मिलाकर तीनों मंज़िलों में एक कतार में बराबर के साढ़े आठ बाई तेरह फ़ीट के कमरे हैं। इनमें लगभग दो फ़ुट चौड़ा लोहे की सरियों वाला केवल एक दरवाज़ा और कमरे के दूसरी ओर ऊँचाई पर एक संकरा सा रौशनदान है। हर कमरे में एक बंदी को रखा जाता था।

टॉयलेट का कोई प्रबंध नहीं, अगर नियत समय के अलावा किसी और समय में नित्य-कर्म की ज़रुरत हो तो या तो आप रोककर बीमार हों, या फिर उसी गंदगी में घंटों साँस लेने को मजबूर हो जाएँ। उसके लिए भी हाथ-पाँव टेककर जमादार के सामने गिड़गिड़ाना होता था।

दूसरी मंज़िल में एक कोने में बना वह बैरक भी देखा, जहाँ विनायक दामोदर सावरकर जी को रखा गया था। उनके कमरे से फाँसी वाला कक्ष बहुत नज़दीक था। फाँसी के कक्ष में एक साथ तीन लोगों को फाँसी देने की व्यवस्था थी।

शाम को लगभग पचास मिनट का लाईट एंड साउंड शो भी देखने लायक है। जेल निर्माण से आज़ादी मिलने तक के सफ़र को इन पचास मिनटों में मर्मस्पर्शी तरीके से प्रस्तुत किया गया है। रोज़ाना दो शो होते हैं, पहला शाम 6 से 7 बजे तक और दूसरा शाम 7 से 8 बजे तक। यह शो अंडमान और सेलुलर जेल से जुड़े बहुत से अनजाने पहलुओं को भी उजागर करता है। इसी शो के दौरान पता चला कि कैसे वह पीपल का पेड़ अंग्रेज़ों के हाथों बच गया था, जिसके नीचे मुझे वह प्यारी सी बिल्ली मिली थी। शो शुरू होने के कुछ ही मिनटों में मैंने उसे फिर से देखा... इस बार वह दर्शकों की कुर्सियों के नीचे टहलती, खुद को सबसे प्यार करवाते घूम रही थी। हमारी कुर्सियाँ सबसे पीछे थीं। कुछ ही देर में वह हमारे पास आ पहुँची। कुछ देर तक हमारे पास बैठी रही, हमसे भी खुद को सहलवाती रही, और फिर चली गई। शायद अपनी ओर से सारी व्यवस्था का निरीक्षण कर रही थी।

वापस शो पर आते हैं... शो के दौरान पता चला, कि कैसे ख़राब खाने के विरोध में क्रांतिकारियों ने अनशन किया तो जबरन नली से उनके मुँह में खाना डालने की कोशिश में जेल अधिकारियों ने उनकी जान तक ले ली।

सोचने वाली बात है कि इतने ख़तरनाक क्रांतिकारी थे, कि उन्हें दिल दहला देने वाली यातनाएँ दी जा रही थी। लेकिन वे केवल साफ़ पानी और खाने के लिए भूख-हड़ताल कर रहे थे!

विरोधाभास महसूस होता है...

खैर, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 1942-43 में अंडमान पर जापान ने कब्ज़ा कर लिया और 1943 में 30 दिसंबर को नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने पोर्ट ब्लेयर में तिरंगा फहराया। यह पहली बार था जब भारत की किसी भूमि पर भारतीय तिरंगा फहराया गया।

अनुभव बहुत से हुए.... अनुभूतियाँ अनंत!

अभी जारी...