“एक था जंगल” कहानी (जागरण सखी)

जागरण सखी के जुलाई अंक में मेरी कहानी...

"एक था जंगल... पंचतंत्र से आगे..."

विषय है, पर्यावरण संरक्षण
इसे मैंने कुछ-कुछ पंचतंत्र की शैली में लिखा है... ऐसे, जैसे बच्चों की कहानी हो...

किंतु, मर्म... पढ़कर ही तय करें...

कहानी की पृष्ठभूमि...

उधर अवनी (बाघिन) की हत्या की ख़बर मन से निकल ही नहीं रही थी, और इधर... बारबार घटते जंगलों के कारण मानवीय गाँवों की ओर बढ़ते हाथियों की समस्या, उनके साथ इंसानी मुठभेड़ की ख़बरें आहत कर रही थीं...

किन्तु, हम आम जन हैं! बहुत कुछ देखते हैं, फिर भी, बस ख़ामोश बैठ जाते हैं...

ख़ासतौर पर उन मामलों में जो हमारे हाथ में ही नहीं है!

जानते बूझते शक्ति का तमाशा देखते रहते हैं!
और, जब कुछ भी नहीं कर पाते... तो मेरे जैसे कुछ उन भावनाओं को काग़ज़ पर उतार देते हैं...

ऐसी ही एक कहानी है...

एक था जंगल पंचतंत्र से आगे...

जागरण सखी के जुलाई, 2019 अंक में प्रकाशित (पृष्ठ 84 - 86)

जागरण सखी - जुलाई 2019, मुखपृष्ठ
"एक था जंगल - पंचतंत्र से आगे..." कहानी पृष्ठ 84
"एक था जंगल - पंचतंत्र से आगे..." जारी (पृष्ठ 85)
"एक था जंगल - पंचतंत्र से आगे..." (पृष्ठ 86)

कहानी का मूलपाठ -

एक बार की बात है, एक था जंगल। बहुत घना... बहुत पुराना! तरह-तरह के पेड़-पौधों से भरपूर... ख़ूब सारे फलों के पेड़ और बहुतों में तरह-तरह के फूल! उन पेड़ों पर घर बनाकर बसते थे, रंग-बिरंगे, छोटे-बड़े, प्यारे-प्यारे पंछी... और इन्हीं की छाँह में डेरा डाले रहते छोटे-बड़े जानवर... नन्हे-मुन्ने ख़रगोश, या कुचाले भरते हिरणों के झुण्ड, गोल-मटोल प्यारे भालू, पेड़ के तनों में अपने गोल-गोल घर से अपनी गोल-गोल आँखों से रातों की पहरेदारी करते उल्लू, तीखी निगाहों वाली लोमड़ी, भेड़िया और सियार, शेर-चीते या मदमस्त हाथी विशाल इन सभी की दुनिया ये जंगल ही था, जहाँ इन सबने अपना गाँव बसा रखा था।

इस घने जंगल के अन्दर इनकी निश्चिंत दुनिया बसती थी... इंसानी दुनिया से बहुत दूर, इंसानी फ़ितरत से भी दूर, इंसानी लालच से महफूज़... सुरक्षित! ये कभी इंसानी दुनिया में क़दम नहीं रखते थे। इनकी ज़रूरतें यहीं जो पूरी हो जाती थीं। चारों तरफ़ पेड़-पौधों के फल-फूल और पत्तियाँ उनकी भूख मिटाते और छोटी-छोटी पहाड़ियों के बीच से बहता झरना प्यास बुझाता रहता। अपने जंगल गाँव में रहते और वहीं संतुष्ट रहते थे। प्रकृति के नज़दीक, प्रकृति के ये जीव, सूरज की पहली किरण के साथ जागते। पक्षी अपने कलरव की गूँज से पूरे जंगल को जगाते और इसके साथ ही निकल पड़ते सबके सब अपने-अपने काम में।

चिड़िया जाती दाने चुगने और जानवर निकल पड़ते अपने-अपने खाने के इंतेज़ाम में। सारे दिन कामकाज में बिताकर साँझ ढले सब अपनी-अपनी नीड़ की ओर वापस लौटते। खाने पीने का बस उतना ही इंतज़ाम करते जितना उनकी भूख के लिए काफ़ी हो। कम से संतोष न करते, लेकिन अधिक के लिए हाथापाई भी न करते... जमाखोरी उनकी प्रवृत्ति न थी।

ज्यों-ज्यों सूरज पश्चिम में ढलता, जंगल के ये निवासी अपने-अपने घरों में दुबककर, चैन की नींद सो जाते।

इसी जंगल में एक बाघिन भी रहती थी, अपने साथी बाघ के साथ। उसकी प्यार भरी ज़िन्दगी बड़े ही सुख-चैन से गुज़र रही थी। यहीं कहीं हाथियों का एक बड़ा सा परिवार भी रहता था। अपने में मगन.. अपने काम में मुस्तैद छोटे-बड़े जानवरों के साथ इन हाथियों ने भी यहीं अपना क़स्बा बसाया हुआ था।

सबके सब वहाँ बहुत ख़ुशी-ख़ुशी रहते... मिलजुलकर, बहुत प्यार से! उनके जंगल के बाहर की दुनिया कैसी है, उन्हें इस बात से कोई लेनादेना न था। इंसानी दुनिया से तो उन्हें कोई मतलब ही न था। न उन्हें इंसानों में कोई दिलचस्पी थी और न ही उनके पास समय ही था। वे तो कितने मगन थे बस अपनी ही दुनिया में... ख़ुश थे और व्यस्त थे। वे कभी किसी और की ज़मीन न हथियाते। जहाँ घर बनाते, बस उसी में ख़ुश रहते... लालच बस इतनी कि उनके पेट भर जाएँ, अभिलाषा बस इतनी कि शांति से जीवन बसर कर जाए।

बड़े ही प्यार भरे माहौल में इस जंगल-राज में ज़िन्दगी बीत रही थी। लेकिन अपनी दुनिया में खोए, इस प्राणी-जगत को ख़बर ही न थी कि जंगल के बाहर जिनकी दुनिया है, वे बिलकुल अलग ही लोग हैं। वे नहीं जानते थे कि बाहर की दुनिया का प्राणी उनसे अधिक बुद्धिमान है, अधिक ताक़तवर है, जिसमें लालच की भरमार है। उन्हें नहीं पता था कि जिस दिन उस इंसान की नज़र उनकी दुनिया पर पड़ जाएगी, उनकी प्यार भरी ये दुनिया बस उजड़ जाएगी, बिखर जाएगी!

एक दिन, प्यार भरे उस माहौल को इंसान की नज़र लग ही गई। एक शिकारी उधर से गुज़रा और उसने प्रकृति का भंडार देखा। लालच उसकी आँखों से टप-टप टपकने लगी। उसने झटपट अपने हथियार संभाले और दुबककर बैठ गया शिकार के इंतज़ार में।

हिरण का एक बच्चा अपनी माँ से बिछड़कर उस तरफ़ आ गया था। शिकारी ने झटपट निशाना साधा और उस बच्चे को अपना शिकार बनाया। गोली की आवाज़ पूरे जंगल में गूँज उठी। सारी चिड़िया डर के मारे चीख उठीं, भय से आक्रांत सारे जानवर अपनी-अपनी जगहों पर ही दुबककर छुप गए। वैसे ही जैसे आतंकवादी हमले पर हम इंसान डर जाते हैं!

जिसे जो जगह सुरक्षित लगी, वो वहीं दुबक गया। शिकारी की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। आख़िर उसका अभियान सफल था रहा! उसने बेख़ौफ़ उस बच्चे को अपने साथ बाँधा, और लेकर चल पड़ा। अपनी इस सहज सफलता पर कभी ख़ुश होता तो कभी हैरान भी! बिना विरोध कितनी आसानी से उसने उस बच्चे को अपना निशाना बना लिया!

जाते-जाते एक बार पलटकर देखा, और वायदा किया ख़ुद से, ‘ये जंगल तो जन्नत है! जल्दी ही फिर आऊँगा...’

जंगल से निकलकर शिकारी पहुँचा अपनी उस दुनिया में, जहाँ उससे भी बड़े शातिर, लालची उसकी कामयाबी पर घात लगाए बैठे थे। जो अधिक ताक़तवर थे। आख़िर उन्हें भी तो उस हिरण के बच्चे में अपना हिस्सा चाहिए था! कितना बचता, कितना छुपता, आख़िर एक बड़े व्यापारी के आदमियों के हाथ आ ही गया।

आदमी उसे पकड़कर व्यापारी के पास ले गए। व्यापारी ने अपने तरीक़े से पूछताछ करवाई, शिकारी की तो जान पर बन आई! अपनी जान तो सबको प्यारी होती है, वो बात अलग है कि दूसरे की जान की कोई कीमत नहीं लगती है। जान बचाने को शिकारी ने बताया, ‘शहर से बाहर, गाँवों से दूर, बहुत बड़ा जंगल बसा है। वहाँ तरह-तरह के जानवर ही नहीं, रंग-बिरंगी चिड़िया भी हैं, और हैं प्रकृति का भण्डार भी... इतने सारे खनिज, कि मालिक, आप अब से दस गुने रईस बन जाओगे।’

सुनकर व्यापारी की आँखें चमक उठीं, चमकते-दमकते व्यापार की कल्पना से ही उसकी बाँछें खिल उठीं। अपने पैसे की ताक़त से उसने बहुत बड़ा जाल बनवाया। उस जाल में पूरा का पूरा जंगल ही फाँसने का इरादा बनाया। जंगल की सारी संपदा अपने नाम करने का संकल्प उठाया। और इतनी संपत्ति के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हो गया।

‘जंगल के इस सिरे पर हम कारखाने बनाएँगे। तरह-तरह के उपकरणों से नए-नए सामान बनाएँगे। गाँववालों को रोज़गार देंगे। हर किसी का ख़याल रखेंगे, सरकार को भी इसमें हिस्सा ख़ास देंगे।’ व्यापारी ने किया ऐलान, जिसका सब इंसानों ने दिया साथ। क्यों न हो, आख़िर उसके कारण सभी का तो होने वाला था बहुत ख़ास विकास!

अपनी बड़ी-बड़ी मशीनों के साथ जंगल में इंसान घुस गए। इंसानों की हो-हुल्लड़ को देख पशु-पक्षी घबरा उठे। मशीनों के धुएँ में उनके दम घुटने लगे और तेज़ आवाज़ों से उनके कान फटने लगे। पक्षियों की चीत्कार जंगली आसमान में गूँजने लगी। सबके सब पक्षी अपने घोंसले छोड़ कहीं और घर बसाने उड़कर जाने लगे। छोटे-छोटे जानवर अपनी जान बचाने छुपने-छुपाने लगे। एक-एक करके पेड़ कटकर गिरने लगे। देखकर जंगल का दिल ही टुकड़े-टुकड़े हो गिरने लगा। तड़प उठा, लेकिन कुछ न कर पाया... निर्जीव बना बस ख़ुद को कटते देखता रहा।

हाथियों के क़स्बे में भी ख़बर फैल गई। जंगल कट रहे हैं, जानकर सभी हैरान रह गए! बाघिन और उसके बाघ को होश आया... महसूस किया कि उनका साम्राज्य अब ख़तरे में है आया। दोनों को अपनी कमान संभालनी थी और निकलना था अपने जंगल को बचाने के लिए।

वे तो अपनी दुनिया में सुख-शांति से रह रहे थे। कभी बाहर की दुनिया में जाकर इंसानी दुनिया में दखल देने का उन्हें ख़याल भी न आया था। लेकिन वे नहीं जानते थे कि इंसान की नज़र उनकी दुनिया पर पड़ने लगी है।

कभी सोचा भी न था कि एक दिन मानव आएगा और जंगलों में ऐसी तबाही मचाएगा कि उनसे उनका खाना-पीना ही नहीं, उनका घर भी छिन जाएगा। सभी स्तब्ध थे, सभी डर रहे थे। बाघ और बाघिन युद्ध की तैयारी कर रहे थे। लेकिन बाघिन बेचारी तो माँ बनने वाली थी, सो युद्ध की कमान अकेले बाघ को ही संभालनी थी। लेकिन हाय री किस्मत! इंसान उस खूंखार बाघ पर कई गुना भारी पड़ गया। एक बार जो घर से निकला बाघ, कभी वापस ही न आ सका।

जैसे-जैसे जंगल कट रहे थे, हाथी भी बेघर हो रहे थे। आख़िर वे बड़े से जानवर हैं, उनकी भूख भी अधिक और उन्हें रहने के लिए बड़ी सी जगह की भी ज़रुरत थी। घटते जंगल में हाथियों का भी गुज़ारा मुमकिन न था, सो वे सब प्रवास की तैयारी में लग गए।

उधर बाघिन परेशान थी, बाघ के बिना अकेली जीने को लाचार थी। अपने नवजातों की सुरक्षा को लेकर हो गई थी मजबूर, सोचा चली जाती हूँ अब इस जगह से कहीं दूर।

घटते जंगल इन सबके लिए मुसीबत थे। उनका घर उजड़ता जा रहा था, और उन्हें रास्ता न कोई नज़र आ रहा था।

लेकिन उस महफूज़, सुरक्षित जंगल से निकलकर जा पाना आसान न था। आख़िर हर तरफ़ तो इंसानों ने घेरा डाल रखा था। जिधर जाते उधर ही इंसानी मुठभेड़ हो जाती... शांतिप्रिय, अमन-पसंद ये जानवर आत्मरक्षा में हो गए कुछ प्रचंड अब। हाथी अपनी भूख से हो रहे थे उग्र, और बाघिन अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर थी व्यग्र।

एक तरफ़ बाघिन निकली अपने बच्चों को बचाती, छुपती, छुपाती, दूसरी ओर हाथियों के झुण्ड निकलते, खाने की तलाश में। क़दम-क़दम पर हाथियों की इंसान से मुठभेड़ हो जाती, जिसमें कभी इंसान चोट खाता तो कभी कोई हाथी भी मारा जाता।

बाघिन तो माँ थी, वह तो जैसी रानी लक्ष्मीबाई थी! वह कैसे अपने बच्चों के सामने अपना मान-मर्दन होने देती? आख़िर बच्चों को कायरता का पाठ कैसे पढ़ाती? टूटकर लड़ती रहती अपने अस्तित्व की ख़ातिर। कभी उग्र होती, कभी चोट खाती, और फिर, कभी और उग्र हो जाती, फिर अपने बच्चों की भूख देख, और भी अधिक, बहुत अधिक उग्र हो जाती।

उसकी उग्रता का निशाना कभी वो न बने जिन्होंने उनका घर उजाड़ा था। उस मासूम को क्या पता कि वे कोई और ही थे, जिन्होंने उसके बाघ को मारा था। वे और ही थे जिनके इशारों पर उनका जंगल उजड़ा था, वे और ही थे जिनकी महत्वाकांक्षा ने उन सबकी दुनिया तबाह कर डाली थी। उसके लिए तो दो पैरों पर चलने वाले सारे इंसान एक जैसे ही थे। और अपने बच्चों की ख़ातिर वो सबसे भिड़ जाने को तैयार रहती। हारी नहीं, लड़ती रही, वह कभी भी न हारी, लेकिन कुटिलता और षड्यंत्रों ने उसकी जान ले डाली। उसके दुधमुंहे बच्चों ने भूख से तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया कहीं... और इंसानों ने अपनी पीठ थपथपाई, आख़िरकार उनकी हुई थी जीत, भले ही मानवता थी हारी!

क्यों न हो, आख़िर मनुष्य ही तो है ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना, वह किसी से हार जाए, ये कहाँ हो सकता है भला?

हाथी अपने झुण्ड में थे, वे अब भी चलते जा रहे हैं। अपने अस्तित्व की लड़ाई रोज़ लड़ते जा रहे हैं। कभी हज़ार थे, फिर पाँच सौ, अब बचे होंगे कोई सौ-दो सौ... इंसानों के साथ उनकी मुठभेड़ अब भी जारी है। कभी भूख से मर जाते हैं तो कभी वीरगति पाते हैं, कभी ख़ुद उजड़ते हैं, तो कभी इंसानों को उजाड़ जाते हैं।

उन्हें तो कभी ख़बर ही न थी कि उनके जंगल के बाहर भी कोई दुनिया है, और उस दुनिया में बहुत बुद्धिमान, बहुत शिक्षित, सुसंस्कृत प्राणी भी रहता है। वे नहीं जानते थे कि इस प्राणी को संग्रह की आदत है, जमाखोरी उसके खून में है, लूटपाट उसकी इबादत है! आज जाना जब उस श्रेष्ठ प्राणी ने उनसे उनका ठिकाना छीन लिया, उनका भोजन, उनका पानी, उनका जीवन तक छीन लिया। और तो और, उन्हें इंसान का दुश्मन घोषित कर, उनका सम्मान भी छीन लिया!

वैसे ही जैसे विदेशी आक्रांताओं ने हमारे भारत देश को लूटा था, वैसे ही तो हम इंसानों ने इन पशु-पक्षियों के घर में सेंध लगाई, उन्हें लूटकर उजाड़ा और बर्बाद कर डाला! और तो और, उनका नैसर्गिक स्वभाव भी छीन डाला।

अब ये हाथी के झुण्ड भी निकल पड़ते हैं, इंसानी दुनिया में अपना भोजन खोजने। रास्ते में पड़ने वाले हर इंसान को तबाह करने... वे नहीं जानते, उनके रास्ते में आने वालों ने उसके घर नहीं छीने। उन्हें भी उस बाघिन की तरह सारे इंसान एक जैसे ही हैं लगते। वे कहाँ जानते हैं, कि उनके षड्यंत्रकारी ए.सी. अट्टालिकाओं में बैठे हैं दुबके... बना रहे हैं और भी जंगलों को उजाड़ने की योजनाएँ! वे कभी नहीं उनके हाथ आएँगे, और राह में हज़ारों मासूम मारे जाएँगे। हाथी भी क्या करें... भूख उनकी अधिक है, आख़िर शरीर उनका बड़ा है। खाना तो चाहिए ही, जब तक उस शरीर में जीना है।

लड़ाई अब भी चल रही है, लगातार जारी है। पर जीत तो इंसान की ही होगी, आख़िर वही तो शक्तिशाली है!

इस सुसंस्कृत दुनिया में जानवरों का काम क्या? प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ प्राणी को इस बात का अहसास ही कहाँ? उसे तो तरक्की करनी है, दिन-दूनी और रात चौगुनी...

जल्दी ही समय आएगा, जब न कोई जंगल होगा, न पेड़-पौधे, न पक्षियों का कलरव होगा और न भौरों की गुनगुन, न कोई शेर-शेरनी, बाघ-बाघिन होंगे, न होंगे हाथी और न ही वो छोटे-छोटे, कूदते-फुदकते जानवर! हम होंगे, आप होंगे और होंगे हमारे कंक्रीट के दहकते जंगल!

 

सब भूले बैठे हैं कि प्रकृति से खिलवाड़ भारी पड़ता है, लेकिन परवाह नहीं, क्योंकि सभी के दिल में यही पलता है... प्रकृति जब बदला लेगी, तब लेगी, अभी क्या है करना?

सभी को सात पुश्तों के लिए धन-संपदा जुटानी है

प्रकृति ही न रही तो वो संपदा किसके काम आनी है?

सात पुश्तों के लिए न सही दो पुश्तों के लिए भी प्रकृति को संभाल लें...

जीवन रहा तो संपदा उन्हें ख़ुद ही बना लेनी है।