एक था बंटी… कहानी

एक था बंटी

बचपन की कुछ यादें शरारतों के पुलिंदों में बंधी मिलती हैं। ऐसी ही एक याद है उस शरारत के पुलिंदे, बंटी से जुड़ी, जो अब जाने कहाँ होगा। बात उस समय की है जब मैं शायद छठीं में पढ़ती थी। हमारे घर के पास ही बंटी भी रहता था। यों तो बड़ा प्यारा था, लेकिन बस, कभी-कभी नाराज़ हो जाए तो गुस्सा इतना तेज़ कि साथ के बच्चों की धुनाई कर डालता था।

मुझसे कुछ वर्ष छोटा था, शायद इसीलिए न केवल मैं उससे बच जाती, बल्कि बहुत बार वो मेरी बात भी मान लेता था। यों तो हम सब दोस्त मिलकर अधिकतर उसके गुस्से को संभाल लेते, लेकिन कई बार स्थिति इतनी बिगड़ जाती कि उसे शांत करने के लिए उसकी माँ को ही बुलाना पड़ता था। बंटी के माता-पिता जितने ही शालीन, वह उतना ही शरारती। बंटी के पापा के ट्रांसफ़र के बाद, वह और उसकी शरारतों की कहानियाँ वहीं जैसे थम सी गयीं।

लेकिन बंटी की ये कहानी यहीं ख़तम नहीं होती। बंटी को बंटी हम सब घर पर प्यार से बुलाते थे। उसका असल नाम तो विवेक था। विवेक नाम का मान रखते हुए वह नाम के मुताबिक वह पढ़ाई में अच्छा भी था। लेकिन बस... कहानी तो गुस्से की थी, जो उसे विवेक से बंटी बना देता, और जल्दी ही हम सबने यह मान लिया था कि बंटी नाम के बच्चे बहुत ही शरारती होते हैं! बंटी तो कहीं और चला गया, लेकिन बंटी नाम की कहानी यहाँ ख़तम नहीं होती।

बात उस समय की है, जब मैं आठवीं में थी। हमारे यहाँ कुछ विद्वान इंजीनियर्स ने मिलकर आठवीं से बारहवीं तक के बच्चों को साइंस, मैथ्स और अंग्रेज़ी पढ़ाना (कोचिंग/ट्यूशन टाइप) शुरू किया। बाकी सारे टीचर्स थोड़े कड़क और थोड़े हँसमुख थे, लेकिन अंग्रेज़ी वाले सर बहुत अधिक अनुशासन प्रिय थे। वैसे तो वह हम सभी बच्चों को बहुत प्यार भी करते थे, लेकिन अनुशासनहीनता या ग़लतियों को नज़रअंदाज़ नहीं कर पाते थे। वे हर शनिवार कोचिंग के सारे बच्चों को एकसाथ बैठकर सामान्य ज्ञान की क्विज़ भी करते, और ग़लत जवाब होने पर छोटे बच्चों के सामने ही बड़े बच्चों को बढ़िया से डपट भी देते। ज़ाहिर है, हम सभी बच्चे उनसे काफ़ी अधिक डरते थे। ख़ासतौर पर दसवीं-बारहवीं के बड़े बच्चे... जिन्हें हर वक़्त अपने से छोटों के सामने बेईज्ज़त होने का ख़तरा रहता।

हमारे बंटी की कहानी से इस किस्से का लेना-देना केवल इतना था कि अंग्रेज़ी और सामान्य ज्ञान के इन सर का नाम भी ‘विवेक’ था। विद्वान् तो वे थे ही, लेकिन कड़क होने के कारण बच्चों के लिए थोड़े सिरदर्द भी हो गए थे। और इसी क्रम में कब उन्हें बंटी के साथ जोड़ा गया, और कब उनका नामकरण बंटी कर दिया गया, ये तो मुझे नहीं पता, लेकिन बस इतना याद है कि जल्दी ही हम सब बच्चों के लिए वे विवेक सर की जगह ‘बंटी सर’ बन चुके थे।

टीचर्स का नामकरण करने का गुर भी कुछ ख़ास विद्यार्थियों में होता है, हर किसी के वश की बात नहीं होती। ठीक से याद नहीं, इसलिए यहाँ यह ख़ुलासा करना ठीक नहीं होगा कि यह नामकरण किसने किया था!

और फिर, बंटी की कहानी का वो क्लाइमेक्स आया, जब बंटी सर को पता चल गया कि उनका नाम ‘विवेक सर’ से ‘बंटी सर’ किया जा चुका है।

सारे बच्चे डरे, सहमे से रहने लगे... बहुत फुसफुसाहट हुई, बहुत सी बच्चा-पंचायतें बैठीं... हम सभी को डर था कि अब ये किस्सा हमारा माता-पिताओं तक पहुँचेगा, और सबको ख़ूब डाँट पड़ेगी।

मुझे भी यही लगा था कि सर बहुत गुस्सा होंगे, और बात हमारे कड़क स्वभाव पिताजी तक पहुँचेगी तो न जाने क्या हश्र होगा! स्थिति बहुत ही तनावपूर्ण थी। सभी बच्चे अपने-अपने बचाव-पक्ष तैयार कर रहे थे।

लेकिन जल्द ही देखा, बंटी सर के साथ ही बाकी सभी सर आपस में हँस-हँसकर बातें कर रहे हैं, तो हम सभी आश्चर्य में पड़ गए!

दूसरे एक सर ने हम सबको समझाया ज़रूर था कि ऐसे टीचर्स का नाम रखना अच्छी बात नहीं, लेकिन न ही कोई सर नाराज़ हुए और न ही हमारे घरों में शिकायत की गई!

और, इसी के साथ ‘बंटी’ कथा की इति हुई!