तेज़ाब… (लघुकथा)

अभी एक दिन चित तरंगिणी पत्रिका के फ़ेसबुक पेज पर live आने का अवसर मिला। जहाँ मैंने अपनी एक कहानी सुनाई और उससे जुड़े सामाजिक विषयों पर चर्चा भी की...

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कहानी :

इंस्पेक्टर प्रशांत अपने पुलिस स्टेशन पर दाखिल ही हुए थे कि कोने में बैठी उस नाज़ुक सी लड़की को देख उनके कदम ठिठक गए। ध्यान से देखकर, जैसे पहचानते हुए, उसकी ओर तेज़ी से बढ़े।

“तुम? तुम फिर यहाँ?” इंस्पेक्टर के स्वरों में आवेश स्पष्ट था। सुनकर वह दुबली-पतली लड़की सकपकाकर उठ खड़ी हुई। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें इंस्पेक्टर के चेहरे पर टिक गयीं। आँखों से ही न जाने क्या कह देना चाह रही थी। उन बड़ी-बड़ी आँखों में पानी स्पष्ट छलक रहा था। देखकर इंस्पेक्टर ने झुंझलाहट में सिर झटका।

“अब क्या हुआ? तुझे मैंने कितनी बार कहा है, ऐसे कोई केस नहीं बनता उस लड़के के खिलाफ़। वो तो यही कहता है कि तुम भी उसे चाहती हो। कोई बदतमीज़ी भी नहीं की उसने तेरे साथ! है कोई सबूत?बोल?” इंस्पेक्टर समझ रहा था कि लड़की पर उसकी बात का कोई असर ही नहीं हो रहा था। देखकर और भी झुंझला गया, “देख बच्ची...” सुनकर लड़की की आँखों में हलकी सी चमक आयी थी।

इंस्पेक्टर तुरंत संभलते हुए बोला, “अ... क्या नाम है तेरा... हाँ! देख प्रीती, समझा कर, बड़े लोगों से उलझना कोई समझदारी नहीं। दुनियादारी सीख कुछ!” न मालूम क्यों इंस्पेक्टर उसे समझाने की कोशिश कर रहा था।

“इंस्पेक्टर साहब...” प्रीती धीमे से बुदबुदाई और फिर टकटकी बांधे इंस्पेक्टर
की ओर देखने लगी।

“हाँ, बोल! अब क्या हुआ?” इंस्पेक्टर ने उसी आवेश में पूछा। लड़की सहमी हुई सी उसे देख रही थी, कुछ बोल न सकी।

“अरे, बोलती क्यों नहीं?” इंस्पेक्टर और भी झुंझला गया।

“उस लड़के पर... गलती से... तेज़ाब... गिर गया...” प्रीति ने हकलाते हुए जैसे-तैसे अपन वाक्य पूरा किया।

“क्या?” प्रशांत घबरा ही गया था इस बार।

“ये क्या कह रही है तू?”

उसकी आवाज़ पूरे पुलिस स्टेशन में गूँज उठी। आसपास सभी पुलिस वाले, और दूसरे लोग उधर ही देखने लगे। स्थिति को समझते हुए प्रशांत ने झटपट प्रीति को अपने केबिन में आने के लिए कहा, और एक महिला सिपाही को साथ आने का आदेश देते हुए तेज़ी से अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

ये वही प्रीति थी जो कुछ महीने पहले एक बार अचानक पुलिस स्टेशन में उससे
टकराई थी।

“भैया, बचा लीजिये मुझे। वो लड़का बहुत तंग करता है।”

पुलिस स्टेशन में कभी किसी लड़की ने ऐसे उसे भैया कहकर संबोधित नहीं किया
था। प्रशांत के भीतर का भाई भावुक हो उठा था।

“क्या हुआ, विस्तार से बताओ? कौन लड़का है? कहाँ रहता है?”

“मेरे कॉलेज में ही पढ़ता है। लेकिन मैं उसे नहीं पहचानती थी। क्लास में मैंने उसे कभी नहीं देखा था। रोज़ मेरे घर से कॉलेज तक और फिर कॉलेज से घर तक छोड़ने जाता है। रास्ते भर कमेन्ट पास करता रहता है। गन्दी-गन्दी बातें करता है... मुझे बहुत डर लगता है! प्लीज़, बचा लीजिये मुझे, भैया!” प्रीति एक ही सांस में सबकुछ बोल गयी थी।

“तुमने अपने घर पर नहीं बताया? माँ-बाप कहाँ हैं तुम्हारे?”

“बाबा बाहर नौकरी करते हैं.. दो-तीन महीने में कभी एक बार आ पाते हैं। घर में माँ और छोटा भाई हैं। बताऊंगी तो माँ डर जाएँगी... इसीलिए उन्हें नहीं बताया...”

“डरो मत। अपनी रिपोर्ट दर्ज करवा दो। हमलोग देख लेते हैं।” कहकर प्रशांत ने
उसे एक महिला सिपाही के पास एफ़आईआर दर्ज करवाने के लिए भेज दिया।

पुलिस वालों का वास्ता रोज़ तरह-तरह के लोगों से पड़ता है। बहुत ही बारीकी से
इंसान को पहचानने लगते हैं। लेकिन नौकरी ऐसी कि कितनी ही बार कमज़ोर मासूमों की मदद केवल इसलिए नहीं कर पाते कि उनके पास किसी की सिफ़ारिश नहीं होती, कोई जान-पहचान नहीं होती, जबकि प्रभावी बाहुबलियों को संरक्षण देते फिरते हैं।

इंस्पेक्टर प्रशांत बहुत ध्यान से उस लड़की की ओर देखता रहा। उसके एक-एक
शब्द, एक-एक भाव-भंगिमा केवल और केवल सच ही बयाँ कर रहे थे। उसके व्यवहार में कहीं भी, तनिक भी बनावट या झूठ नहीं था। इस मासूम की मदद तो ज़रूर करनी होगी। “एक बार मिल जाये वो लफंगा, टाँगें न तोड़ दीं तो...”

ऐसी भोली-भाली लड़की को इस तरह से परेशान होते देख प्रशांत को मन ही मन उस लड़के पर बहुत गुस्सा आया।

रिपोर्ट दर्ज हुई। प्रशांत ने प्रीति को घर जाने के लिए कह दिया।

अगले ही दिन सुबह-सुबह जैसे ही प्रीति अपने घर से आगे बढ़ी, उस लड़के ने फिर
से उसका पीछा करना शुरू कर दिया। लेकिन आज पुलिस उसका इंतज़ार कर रही थी। दो सिपाहियों ने झटपट उसे धर दबोचा और उसे साथ लेकर पहुँच गए थाने।

“क्यों बे! बड़ी गर्मी चढ़ी है? आते-जाते लड़कियों को छेड़ता है? अभी दो डंडे पड़ेंगे, तो सारी मजनूगिरी निकल जायेगी।” प्रशांत ने उसे देखते ही धमकाया था।

“प्यार करना गुनाह है, तो ज़रूर मारो साहब!” लड़के ने बड़ी ही ढिठाई से अपने
प्रेम की दुहाई दी थी। सुनकर प्रशांत तिलमिला गया था।

“अभी दो थप्पड़ गाल पर बजेंगे तो सारे प्यार का बुखार उतर जायेगा। जब वो
छोकरी तुझे पसंद नहीं करती तो प्यार कैसा बे?”

“जाने दो न साहब, अभी नहीं करती, जल्दी ही करने लगेगी। क्यों दो प्रेमियों के बीच आते हो?”

“फ़िल्म देखकर आया है? डायलॉग सुना रहा है मुझे? साले, संभल जा नहीं तो वो
हाल करूंगा कि...” ताव में आकर प्रशांत उसपर झपटा ही था कि लड़का बोल पड़ा, “मारो मत, साहब! मारो मत।”

प्रशांत को लगा समझ गया है। शांत होकर जैसे ही अपनी कुर्सी पर वापस बैठा, लड़के ने आगे कहा, “एकबार मेरे बड़े भैया से बात करने दीजिये। प्लीज़!”

प्रशांत ने सिर हिलाया। लड़के ने मोबाइल पर अपने भाई को फ़ोन मिला दिया। पुलिस स्टेशन लाये जाने की खबर सुनाई और फ़ोन रख दिया। थोड़ी ही देर में प्रशांत का मोबाइल बजा।

“जय हिन्द, सर!” प्रशांत के सीनियर का फ़ोन था। “जी सर... लेकिन... जी... जी
सर... बिलकुल सर... ठीक है सर...”

मोबाईल टेबल पर फेंककर प्रशांत चुपचाप अपनी कुर्सी पर धँस गया। कुछ देर
मोबाइल को घूरता रहा, और फिर लड़के की ओर देखा। लड़का उसी की ओर देख रहा था। उसकी आँखों में शरारत भरी मुस्कराहट थी। वह जानता था कि उसे पकड़ने के कारण प्रशांत को अच्छी खासी डांट पड़ चुकी है।

लड़के का रिश्ते का भाई बड़ा बिज़नेसमैन था, और सीनियर पुलिस अधिकारी के साथ उसकी अच्छी दोस्ती थी। अब इस तरह की दोस्ती के क्या आधार होते हैं, क्या प्रशांत जानता नहीं था? लेकिन कर क्या सकता था? सरकारी तंत्र में रहकर उसी तंत्र से दुश्मनी लेने की हिम्मत कौन कर सकता है? केवल समाज के लिए तो वह जी नहीं सकता। अपने परिवार की सुरक्षा भी तो उसे ही करनी है। अपनी नौकरी भी तो उसे ही बचाए रखनी है। मन कितना ही कुंठित होता गया, लेकिन प्रशांत ऊपर से शांत बना रहा।

“इसका बयान लिखकर जाने दो इसे” सिपाही को निर्देश देकर प्रशांत तेज़ी से बाहर
निकल गया।

अगली सुबह वह थाने पहुँचा ही था कि अपने कमरे के बाहर उसे कुछ शोरगुल सुनाई दिया। सिपाही से पता लगाने के लिए कहा तो मालूम चला प्रीति फिर से आयी थी और उससे मिलने की ज़िद्द कर रही थी। एक क्षण को वह ठिठका, फिर कुछ सोचकर उसे बुलवा भेजा।

“अब क्या हुआ?”

“आपने उसे छोड़ दिया? वो फिर पहुँच गया मुझे तंग करने...”

“देखो, हम ऐसे कोई कार्यवाही नहीं कर सकते। तुम्हारे पास क्या सबूत कि वो
तुम्हें तंग करता है?”

“लेकिन...” प्रीति की आँखों का डर आँसू में तब्दील होने लगा था।

“देखो प्रीति, हमने उसका बयान लिया। उसका कहना है, वो तुम्हें चाहता है, और
तुम भी... अब प्यार-मोहब्बत की बातों में पुलिस का क्या काम?” प्रशांत ने सच और
झूठ मिलाकर काफ़ी बढ़िया मिश्रण तैयार किया था। करता भी क्या? एक मासूम सी लड़की के सामने अपनी कमज़ोरी कैसे मान लेता? कैसे कह देता कि उस लड़के की पहुँच प्रीति की इज्ज़त से ज़्यादा बड़ी है। कैसे मान लेता कि क़ानून के लम्बे हाथ उस लड़के के परिवार के कद के आगे छोटे पड़ गए।

“प्यार-मोहब्बत?” प्रीति के कानों में मानो किसी ने सीसा घोलकर डाल दिया था।
उसकी आँखों से आँसू झरझर बहने लगे।

“मैं उसे जानती तक नहीं! प्यार-मोहब्बत की बात कहाँ से आ गयी?”

“देखो, हम कुछ नहीं कर सकते... कोई केस ही नहीं बनता” प्रशांत ने बात ख़त्म
करने की कोशिश की थी।

“अगर... आपकी बहन होती... तो भी आप यही कहते?” सिसकियों के बीच प्रीति के
शब्द ठीक से सुनाई नहीं दे रहे थे। लेकिन प्रशांत बहुत ध्यान से उसे सुन भी रहा था, और देख भी रहा था। उसका चेहरा सख्त होता जा रहा था। थोड़ी देर खामोश रहा, फिर फट पड़ा।

“नहीं कहता। बिलकुल नहीं कहता। लेकिन उसे आत्म-सुरक्षा के तरीके ज़रूर सिखाता। ऐसे मवालियों से डरना नहीं, लड़ना ज़रूर सिखाता। जाओ, अपने लिए मिर्ची पाउडर खरीदो, आत्म-रक्षा के पैंतरे सीखो... और कुछ नहीं तो कम से कम सरेआम, भरी भीड़ में उसे दो-चार थप्पड़ जड़ने की हिम्मत तो ज़रूर रखो।” प्रीति की मदद न कर पाने की कुंठा कुछ इस तरह निकली थी प्रशांत के शब्दों में।

प्रीति कुछ देर चुपचाप उसे देखती रही और फिर चली गयी। वह हताश, हारे हुए मन
से उसे जाते हुए देखता रह गया था।

उस दिन गयी तो सीधे आज आयी थी।

“क्या हुआ? बता?” प्रशांत ने  पानी का गिलास उसके आगे बढ़ाते हुए पूछा।

“अगले ही दिन वो फिर आया था... ताने दे रहा था... पुलिस वाले तेरी मदद नहीं
कर सकते। जानती नहीं, मेरे भाई की जेब में हैं सब... और, फिर मुझसे...” प्रीति की
जुबान लड़खड़ाने लगी। संकोच घेरने लगा।

“फिर? क्या हुआ? डरो मत! बोलो...” प्रशांत का चेहरा और भी सख्त होता चला जा
रहा था।

हिम्मत जुटाकर प्रीति आगे बोली, “गन्दी गन्दी बातें... शादी करोगी... और भी... पता नहीं क्या-क्या... रोज़ वही सब... फिर...” थोड़ा ठहरी, इधर-उधर देखा और फिर आगे जोड़ा, “फिर एक दिन मैंने सचमुच हिम्मत जुटाकर उसे थप्पड़ जड़ दिया।”

सुनकर प्रशांत ही नहीं पास में खड़ी उसकी असिस्टेंट, और दूसरे सिपाहियों के
चेहरे पर भी चमक आ गयी।

“पास खड़ी भीड़ ने उसे खदेड़ दिया। उस दिन के बाद आज आया। सुबह-सुबह, मैं
कॉलेज के लिए निकली ही थी। देखा सामने खड़ा था। आसपास अधिक लोग नहीं थे। मैं डर गयी। लेकिन हिम्मत करके आगे बढ़ी। वो साथ-साथ चलने लगा। भद्दी-भद्दी बातें बोल रहा था। मुझपर ताकत आज़मायेगी? बड़ा गुमान है तुझे खुदपर? सारा घमंड पल भर में चूर कर दूंगा... और उसके हाथ में एक शीशी थी। उसे खोलने लगा तो मैं डर गयी। मैं ज़ोर से चिल्लाई और तेज़ी से लपककर उसका हाथ पकड़ लिया। आसपास के लोग भी आ गए... और हाथापाई में शीशी खुलकर उसके चेहरे पर गिर गयी।”

प्रीति चुप हो गयी थी। प्रशांत भी चुप था। आसपास चारों ओर सन्नाटा छाया था।
सभी अवाक् थे।

किसी से कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर थोड़ी देर बाद प्रीति ने ही ख़ामोशी तोड़ी, “अब आप क्या करेंगे?”

सुनकर प्रशांत ने गहरी साँस ली। आसपास खड़े अपने साथियों को देखा। सभी उसकी ओर न जाने कौन सी आस लिए देख रहे थे। प्रशांत ने मानो मन ही मन कुछ निश्चय किया, और प्रीति की ओर गहरी नज़रों से देखा और बोला, “कुछ नहीं।”

उसकी आँखों में मुस्कुराहट थी। आवाज़ में दृढ़ता थी। इसके साथ ही कमरे में
मौजूद सभी पुलिस वालों के चेहरों पर राहत के भाव आये।

“कुछ नहीं?” प्रीति कुछ समझ नहीं सकी।

“घर जाओ। बस ये याद रखना कि तुम आज उस समय उस जगह पर नहीं थीं।”

प्रीति एकटक अपने इस भाई की ओर देख रही थी, जिसे एक दिन उसने अनजाने में
भैया बोल दिया था। प्रशांत की नज़रों का स्नेह उसे आश्वस्त कर रहा था। कमरे में मौजूद हर पुलिस वाले के चेहरे ख़ुशी से दमक उठे थे।

***

इस तरह की कहानी मैंने क्यों लिखी? इसके पीछे कुछ सामाजिक कारण हैं...

जब हम छेड़खानी, अवाज़ाकशी, molestetion और रेप जैसी वारदातें सुनते हैं तो कैसा महसूस होता है?
क्या बेईज्ज़ती महसूस नहीं होती?

क्या ऐसा नहीं लगता कि कुछ गिने-चुने पुरुषों की विकृत मानसिकता के कारण पूरा पुरुष समाज बदनाम होता है?

मुट्ठी भर थोड़े से लड़के होते हैं, जो लड़कियों, महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार करते हैं... जिसके पीछे शायद यही मानसिकता काम करती है कि उन्होंने कभी किसी महिला की इज्ज़त करना ही नहीं सीखा...

ऐसे लोग अक्सर अपने परिवार की महिलाओं का भी सम्मान नहीं कर पाते... लेकिन सोचिए, उनकी इस बीमार मानसिकता का शिकार पूरा पुरुष समाज हो जाता है...

आपमें से कुछ कहेंगे कि ऐसा नहीं है... तो एक बार फिर से सोचिये.... आप अपनी बहन, बेटी पत्नी या माँ के साथ कहीं जा रहे हों, सामने से चार-पाँच लड़कों का ग्रुप आ रहा हो, तो क्या आप सशंकित नहीं हो जाते?

ऐसा क्यों? आपको क्यों लगता है कि पास से गुज़रने वाले लड़के आपके परिवार की महिलाओं को छेड़ सकते हैं?

क्या सारे लड़के ऐसे होते हैं? क्या सारे लड़कों के पास महिलाओं को छेड़ने के अलावा कोई और काम नहीं?

सोचने वाली बात है दोस्तों... विचार कीजिएगा...

गिनती के कुछ लड़कों की मानसिकता का शिकार केवल लड़कियाँ और महिलाएँ ही नहीं होतीं... बल्कि उनके शिकार अधिकतर लड़के भी होते हैं... जिनकी ख़ुद की मानसिकता स्वस्थ है, लेकिन फिर भी बदनाम होते हैं... क्योंकि कुछ लड़कों या पुरुषों ने अपने बुरे व्यवहार के कारण सारे पुरुषों को बदनाम कर दिया है।

हम किसलिए ख़ुद को कुछ असामाजिक तत्त्वों के साथ relate करें?

जब हम कोई कहानी पढ़ते हैं, या कोई मूवी देखते हैं, तो हम लड़कियों की मदद करने वाले को हीरो मानते हैं, या उन्हें तंग करने वालों को? लड़कियों के बीच लोकप्रिय व्यक्ति हीरो बनता है या जिनसे लड़कियाँ नफ़रत करती हैं, उन्हें आप हीरो समझते हैं?

लड़कियों को तंग करने वालों को तो हम झटपट खलनायक बता देते हैं!

तो, आप अपनी ज़िंदगी की कहानी में क्या बनना पसंद करेंगे? हीरो या खलनायक? जैसे इसी कहानी में आप इंस्पेक्टर प्रशांत बनने में गर्व महसूस करेंगे या छेड़खानी करने वाले लड़के की तरह बनने में? कहानी में मैंने जानबूझकर उस लड़के को कोई नाम नहीं दिया है... क्योंकि, मुझे लगता है कि ऐसे लोगों की कोई पहचान होती ही नहीं!

अब आते हैं, एसिड अटैक की वारदात पर... क्या कोई सामान्य इंसान ऐसी हरक़त करता है? इसी लड़के की सोचें... लड़की को नुकसान पहुँचा भी लिया होता तो भी, ख़ुद को भी तो नुकसान होता ही!

छेड़खानी का केस बनने से भले ही रोक लिया गया लेकिन एसिड अटैक जैसे केस से कोई कैसे बच सकता है?

समाज में अलग बदनामी होगी... ख़ुद वह लड़का ही नहीं, उसके परिवार वाले भी किसी से नज़र मिलाने लायक नहीं रहेंगे! लड़की को तो एक दर्द मिलेगा, लेकिन उसे लोगों की हमदर्दी भी मिलेगी...

लेकिन लड़के को?
हमदर्दी का तो सवाल ही नहीं उठता... केवल बदनामी मिलेगी... लोग नफ़रत से देखेंगे...

और तो और, ऐसे लड़कों की हरकतों के कारण अक्सर उस उम्र के सभी लड़कों को लोग संदेह की नज़र से देखने लगते हैं...

यानी, एक लड़के के कारण सारे लड़के बदनाम!

तो, कुछ मनचलों के कारण ख़ुद बदनाम क्यों हुआ जाए?

कुछ और सवाल भी मन में आते हैं...

  • क्या पीछा करने से कोई लड़की किसी लड़के से प्यार करने लगती है? हो सकता है, कहीं किसी कहानी या निचले दर्जे की फ़िल्मों में ऐसा दिखाया गया हो... लेकिन ख़ुद ही विचार करें... असल ज़िंदगी में ऐसी हरकतों से, किसी तरह की ज़बर्दस्ती करने से केवल नफ़रत बढ़ती है... प्यार तो बिलकुल भी नहीं!
  • कभी-कभी मैं लड़कों के नज़रिए से सोचने की कोशिश भी करती हूँ... कि यदि मैं लड़का होती तो क्या करती? ऐसे में समझ नहीं पाती कि क्या ऐसे लड़कों में आत्मसम्मान ही नहीं, कि जो नापसंद कर रहा हो, उसी के पीछे जाते हैं? क्या यह बेहतर न होगा कि इज्ज़त से अपनी राह बदल लें? आप कहेंगे, युवा खून है, पीछे हटना नहीं जानता... तो ऐसा भी नहीं... असल ज़िंदगी में ऐसे बहुतेरे किस्से होते हैं जहाँ युवक ख़ुद अपने विवेक से ऐसे हालातों में पीछे हट जाते हैं...
  • रही बदला लेने की बात, तो... अभी तो आप प्यार करने का दावा कर रहे थे, और दूसरे ही पल बदला लेकर अपराधी बन गए? क्या कुछ भी विचार करने की ज़रुरत नहीं?
  • जिस लड़की पर एसिड डालकर, या किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाकर ऐसे लोग उसे बर्बाद करने चलते हैं, उसका शारीरिक नुकसान कितना ही बड़ा क्यों न हो, लेकिन समाज की नज़र में इन लोगों का ही अधिक नुकसान होता है... अपराध की सज़ा तो भुगतेंगे ही और, कभी किसी की हमदर्दी भी नहीं मिलेगी
  • जब हम कोई मूवी देखते हैं तो किस किरदार को पसंद करते हैं? जो हर किसी के साथ अच्छे से पेश आता है उसे, या फिर जो लोगों का नुकसान करते हैं उन्हें? क्या हम नायक को पसंद करते हैं, या फिर खलनायक को?
  • इतने भी क्यों कमज़ोर बनें कि लोगों की नज़र में ख़ुद को खलनायक ही बना दें?
  • आधुनिक फ़िल्मी कहानियाँ हों, या रामायण-महाभारत और अन्य पौराणिक कथाएँ... क्या कहीं ऐसा देखा कि स्त्री पर बल-प्रयोग करने वाले को हीरो माना गया हो?
  • निर्णय तो ख़ुद आपका ही होगा, दोस्तों... कि नायक बनना है या खलनायक? कृष्ण बनना है, या दुर्योधन?

शेष फिर...