नेताजी सुभाष – “पराक्रम दिवस”

नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जिन्होंने देश की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। 125वीं जयंती पर शत-शत नमन

यूँ ही नहीं मनाया जा रहा “पराक्रम दिवस”

बात 1940 की है, जब ब्रिटिश शासन की कैद में रहते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने काली पूजा के दिन आमरण अनशन की चेतावनी दी, और 29 नवंबर से अनशन शुरू भी कर दिया। अब तक बोस लगभग 11-12 बार जेल जा चुके थे।

जब से उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना शुरू किया था, तब से 1945 तक, बोस को अधिकतर या तो जेल में रखा गया, या नज़रबंद और या फिर उन्हें देश से निष्कासित कर दिया गया। किन्तु मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए उनके हौसलों, उनके जज़्बे में कभी कमी न आई। बल्कि, हर बार वे सोने की तरह तप कर और भी ऊर्जा के साथ राष्ट्र-सेवा के कार्यों में जुट जाते।

हालाँकि, यह भी सत्य था कि हर बार जेल के कष्ट उनके स्वास्थ्य को प्रभावित करते, उनकी सेहत गिरने लगी थी, लेकिन उत्साह में कभी कोई कमी न आने पाई थी। उत्साह तो हमेशा ही इतना था, हौसले हमेशा इतने बुलंद थे कि उनकी एक आवाज़ पर देश ही नहीं, विदेशी धरती में रहने वाले करोड़ों भारतीयों में ऊर्जा का संचार हो उठता।

1940 में जब कैद में रहते हुए उन्होंने अनशन शुरू किया, तो पहले से ख़राब स्वास्थ्य और भी अधिक बिगड़ने लगा। उनका गिरता स्वास्थ्य उन्हें तो विचलित नहीं कर रहा था, लेकिन विदेशी हुकूमत को डरा रहा था, क्योंकि वे नेताजी की लोकप्रियता पहचानते थे। वे जानते थे कि अगर जेल में रहते उन्हें कुछ हो गया तो नागरिक विद्रोह हो सकता था।

परिस्थितियाँ कुछ ऐसी थीं कि द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ चुका था, जिसमें अंग्रेज़ों को भारतीयों का साथ चाहिए था। ऐसे में नागरिक विद्रोह उनके लिए बहुत भारी पड़ता। अंग्रेज़ों ने कूटनीति अपनाई और 5 दिसंबर को बोस को उनके घर पर ही नज़रबंद कर दिया। 

यदि ब्रिटिश कूटनीति में कुशल थे, तो नेताजी भी अपार सूझबूझ के धनी थे। भले ही, उन्हें नज़रबंद कर दिया गया था, लेकिन उनकी सूझबूझ पर कौन पहरा लगा सकता था? उनके हौसलों, उनकी हिम्मत पर कौन रोक लगा सकता था? तो बस, उपवास के बहाने केश और दाढ़ी-मूँछ बढ़ाने शुरू कर दिए।

घर में मित्र अकबर शाह, मोहम्मद शरीफ़ और अन्य साथियों का निरंतर आना-जाना लगा था। इस बीच मोहम्मद शरीफ़ ने बोस को मुस्लिम तौर-तरीक़े, आचार-व्यवहार सिखाते रहे।

नियत दिन अकबर शाह ने नेताजी के लिए कुछ कपड़े और टोपी लाकर दी। 16 जनवरी की रात को उन्होंने पूरे परिवार के साथ खाना खाया। रात में, जब पूरा परिवार सो रहा था, उनके घर पर पहरा दे रही पुलिस भी चैन से सो रही थी, नेताजी ने सुनियोजित तरीक़े से मुस्लिम पुरुष का रूप बनाया, बढ़े हुए दाढ़ी-मूँछ ने उन्हें नई पहचान बनाने में मदद की और रात के अँधेरे में वह मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के रूप में अपने भतीजे, शिशिर बोस के साथ घर से निकल पड़े।

शिशिर बोस की कार की आवाज़ से भी पुलिस वालों की नींद न खुली और वे दोनों अपने एल्गिन रोड स्थित आवास से निकले, आगे हावड़ा पुल पार करते हुए जी. टी. रोड होते लगभग 200 किमी का सफ़र तय करते हुए धनबाद में नेताजी के दूसरे भाई अशोक के पास पहुँचे।

भाई अशोक और भाभी मीरा के साथ ज़ियाउद्दीन और शिशिर गोमोह पहुँचे। आगे, कालका मेल से दिल्ली के लिए निकले। दिल्ली में फ्रंटियर मेल से पेशावर पहुँचे। एक बार फिर अपना वेश बदला और पठान बनकर आगे के लिए निकले। उस अल्पकाल में पश्तो सीखना संभव न था, इसलिए मूक-पठान का रूप धारण करके आगे का सफ़र किया।

वह जानते थे कि अंग्रेज़ी हुकूमत उन्हें पकड़ने के सारे प्रयास करेगी, इसलिए वह बारबार अपनी पहचान बदलते रहे। क़ाबुल में उन्होंने इटली-निवासी एक वायरलेस ऑपरेटर, अर्लैंदो मत्सुता का वेश बनाया और मॉस्को से विमान द्वारा 2 अप्रैल को बर्लिन पहुँचे। कार, ट्रेन, घोड़ा-गाड़ी, न जाने कितने तरह के साधन लिए, मीलों पैदल चले और कभी खच्चर की सवारी की, अंततः, मास्को से बर्लिन के लिए हवाई यात्रा की। इस तरह से, 2 महीने 16 दिनों में लगभग 7-हज़ार किमी लंबा कठिन, ख़तरों से भरा सफ़र केवल इसलिए तय किया, ताकि भारत से दूर, भारत की स्वतंत्रता के लिए सार्थक प्रयास कर सकें, विदेशों में रहकर भारत की आज़ादी के लिए जनमत इकट्ठे कर सकें।

16 जनवरी की रात सुभाष बाबू घर से निकले थे, और 17 की सुबह परिवार ने घोषणा की कि वह साधना में चले गए हैं। एकांत में किये जा रहे तप में किसी तरह का व्यवधान उचित नहीं था… और 26 जनवरी को उनके परिवार ने एक और घोषणा की – ‘सुभाष कहीं ग़ायब हो गए हैं।’ उन्हें घर छोड़े दस दिन बीत चुके थे। भले ही संपर्क न रहा हो, किन्तु घर वाले जानते थे अब तक वह सुरक्षित जगह तक पहुँच चुके होंगे।

उस दौर में, जब संचार के इतने माध्यम नहीं थे, जिस समय अंग्रेज़ उनपर लगातार नज़र रखे हुए थे, जिस समय उन्हें ख़ुद भारतीय नेतृत्व से भी कम सहयोग मिल रहा था, नेताजी ने जिस शांतचित्त से दूरदर्शिता के साथ इतनी लंबी योजना बनाई, वह भी विदेश में इतना प्रबल समर्थन और सहयोग जुटाकर, यह अपने आप में अनूठी मिसाल हैं!

उनके हृदय में केवल एक ही आस रहती थी, भारत के लिए ‘पूर्ण-स्वराज’! और, देश को आज़ाद करवाने के अपने इस प्रयास में वह कुछ भी करने को तैयार थे… कितनी भी कठिनाइयाँ उठाने को तैयार थे। किसी निहित स्वार्थ के लिए नहीं। केवल, और केवल अपने राष्ट्र को स्वतंत्र करवाने के लिए।

भारत की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने हिटलर से भी हाथ मिलाया, क्योंकि उनका विचार था कि ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है।’ उनका विचार सही भी सिद्ध हुआ। हिटलर ने भले ही द्वितीय विश्व युद्ध का भीषण शंखनाद फूँका था, लेकिन भारत की आज़ादी के लिए सुभाष बोस के अभियान में उसने पूरी मदद की।

जर्मनी में ही सुभाष चन्द्र बोस ने पहली बार ‘इंडियन लीजन’ नाम से एक सेना का गठन किया, उन सैनिकों के साथ जो विश्व-युद्ध में अंग्रेज़ों की ओर से लड़ते हुए बंदी बना लिए गए थे।

जर्मनी में उन्हें रेडियो प्रसारण के लिए भी सुविधाएँ दी गई, जिसके ज़रिये वह हज़ारों किमी दूर अपने देशवासियों से संपर्क कर सकते थे। अपने रेडियो प्रसारण के ज़रिये बोस लगातार देशवासियों का जन-जागरण करते रहे, तो भारतवासी भी नियमित रूप से उनके प्रसारण सुनते। बताया जाता है कि लोग दूकानों पर रेडियो ख़रीदने जाते तो ख़ासतौर पर पूछते कि इसपर रेडियो बर्लिन आता है या नहीं!

बर्लिन से अपने रेडियो प्रसारण में बोस ने स्पष्ट किया, “मैं त्रिपक्षीय शक्तियों का समर्थक नहीं हूँ। वह मेरा कार्य ही नहीं। मेरा वास्ता केवल भारत की आज़ादी से है…”

1940 में जिन हालातों में नेताजी देश छोड़ने को बाध्य हुए, उस समय द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। 1914-18 के दौरान जब पहला विश्व युद्ध हुआ तो भारतीयों ने इस उम्मीद में ब्रिटिश सेना का साथ दिया था कि युद्ध के बाद उन्हें गुलाम ज़िन्दगी से आज़ादी मिल जायेगी। लेकिन असल में पहले विश्व युद्ध के सारे सहयोग के बाद भारत को बदले में मिली जलियाँवाला बाग़ की भीषण त्रासदी!

1939-40 के दौरान जब विश्व-युद्ध के बादल मंडरा रहे थे, अंग्रेज़ फिर से भारतीयों का सहयोग पाने की कोशिश में थे। लेकिन, नेताजी समझ रहे थे कि इस सहयोग से भारत को कुछ भी हासिल नहीं होगा, अंग्रेज़ उन्हें फिर से दगा ही देंगे। वे अच्छी तरह समझते थे कि अंग्रेज़ भारतीयों को केवल झूठा दिलासा दे रहे थे। इसीलिए उन्होंने अंग्रेज़ों को सशर्त सहयोग देने का प्रस्ताव रखा था, किन्तु उन्हें उनकी पार्टी के न मानने के कारण पहले उन्हें नया ग्रुप बनाना पड़ा और फिर देश छोड़ना पड़ा।

लेकिन वह तो जैसे विपरीत स्थितियों में भी शांत चित्त रहते थे, पूरे विवेक के साथ, बारीक़ियों का ध्यान रखते हुए, योजनाएँ बना लेते थे।

कुछ तो था, कि स्वदेश से इतना प्रेम करने वाले नेताजी को स्वदेश की स्वाधीनता के लिए देश छोड़ना भी स्वीकार था। अपनी माँ, अपने परिवार से भी दूर रहना स्वीकार था।

कुछ तो था, जो उन्होंने देश से दूर जाकर इतनी सशक्त, सबल और समर्पित सेना का गठन किया, अस्थायी आज़ाद हिन्द सरकार का गठन किया, जिसका अपना संविधान, मंत्रिमंडल, सबकुछ था। और फिर, 30 दिसंबर 1943 को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की आज़ाद धरती में पहली बार पोर्ट ब्लेयर में तिरंगा फहराया…

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती समारोह का आयोजन 23 जनवरी से शुरू होने को है। उनका जीवन चरित्र आज भी ‘जय हिन्द’ के नारों में तो गूँजता ही है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि आज देश के सरकारी स्कूलों में चल रहे ‘मिड-डे मील’ का विचार नेताजी ने सौ साल पहले ही दे दिया था, जब उन्होंने नगरपालिका के मेयर के रूप में ग़रीब बच्चों के लिए ‘मिल्क-बैंक’ शुरू किया था।

न केवल साहसी, बल्कि अप्रतिम सूझबूझ और बुद्धिमत्ता के स्वामी नेताजी में हैरान कर देने वाली दूरदृष्टि थी। जिस दौर में वर्षों की ग़ुलामी में देश की महिलाएँ हर क्षेत्र में पिछड़ती जा रही थीं, उस दौर में, लगभग अस्सी साल पहले नेताजी ने महिलाओं की सशक्त सेना रानी झाँसी रेजिमेंट बनाने की अनूठी मिसाल पेश की!

इस अनंत गाथा का कोई विराम नहीं… गुमनाम होने के बाद भी जिन्हें करोड़ों निगाहें दशकों तक खोजती रहीं, उन नेताजी सुभाष चंद्र बोस को शत-शत नमन।

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लाहौर में