परिंदों की चिंता


परिंदों की चिंता - त्रैमासिकी "प्रकृति दर्शन" में आलेख पृष्ठ 39-41

परिंदों की चिंता
सुनें! प्यासे पक्षियों का रुदन

चूं-चूं करती आई चिड़िया... कितने कर्णप्रिय हैं ये शब्द! उससे भी अधिक सुखमय है इन शब्दों को यथार्थ रूप में देखना!

सुन्दर, रंग-बिरंगी चिड़ियों का मधुर कलरव, एक पेड़ से दूसरे पर और एक डाल से दूसरी पर फुदकते रहना। पौ फटे अपने घोंसले से निकलकर कूजती हुई नीले आकाश को ढांपती चिड़ियों का झुण्ड और शाम ढले उसी मधुर आवाज़ के साथ नीड़ में वापस आती ये चिड़ियाँ!

यदि आपके आसपास कोई बड़ा पेड़ होगा तो प्रकृति की इस मनभावन खूबसूरती का आनन्द आपको नित्य निशुल्क ही मिलता होगा।

लेकिन, क्या आपने ध्यान दिया है कि प्रकृति की इस नायाब देन की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है? अधिकतर पक्षी आज विलुप्त हो रहे हैं। हम देख समझ ही नहीं सके कि प्रकृति के साथ हमने जो खिलवाड़ किये उनका असर कितने रूपों में हुआ।

मानव विकास के क्रम में हमने नदियों को बाँध दिया, और पहाड़ों को खोद डाला! जाने कैसा विकास किया, कि जल-स्रोतों की संख्या घटने लगी। भौगोलिक मानचित्र पर नदियों के जाल जैसे दीखने वाले हमारे देश में जल का स्तर लगातार घटता ही गया।

जब हम कम विकसित थे और गाँव-गाँव, घर-घर में पानी के पाइप पहुँच नहीं सके थे, उस समय लोग पानी भरने गाँव के कुओं पर जाते थे। आज घर-घर तक पानी के पाइप पहुँच चुके हैं, लेकिन अधिकतर सूखे पड़े हैं। उधर कुओं में पानी न रहा और इधर नल भी सूखे पड़े हैं। अनगिनत जलाशय सूख कर बंजर बन चुके हैं। नदियाँ सिकुड़कर नाली बन चुकी हैं। विचार की आवश्यकता है- हमने कैसा विकास किया?

मनुष्य तो झगड़ा करके भी अपने लिए पानी का प्रबंध कर सकता है, और तरह-तरह की मशीनों का उपयोग करके भी। लेकिन इन नाज़ुक पक्षियों का क्या? उनके छोटे से शरीर को हमारे जितनी बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन जीने के लिए इन्हें भी पानी तो चाहिए ही। अपनी आवश्यकताओं को ये पक्षी मनुष्य की तरह पूरी नहीं कर सकते। ये न किसी से झगड़ सकते हैं, और न ही किसी तरह की मशीन का उपयोग कर सकते हैं। ये तो जल के अभाव से संघर्ष करते-करते बस हार ही जाते हैं।

हर वर्ष गर्मी में अनगिनत पशु-पक्षी जीवन त्याग देते हैं। कितनी ही चिड़ियों की संख्या कम होती जा रही है और कितनी ही प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं। हम उनपर अपना शोक प्रकट करते हैं, विलुप्त होते पक्षियों की स्थिति पर चर्चा करते हैं, बड़ी-बड़ी सभाएँ करते हैं और वापस अपने नियमित जीवन में व्यस्त हो जाते हैं।

पर्यावरण संतुलन के लिए ही नहीं, धरती के सभी जीवों के जीवन के लिए पेड़-पौधे बहुत आवश्यक हैं। लेकिन इन पेड़-पौधों पर हम इंसानों ने अपने हक़ की मुहर लगा दी। पहले हमने आग जलाने के लिए पेड़ काटे, फिर लकड़ी का व्यापार करने के लिए। हम विकसित होते गए और ऊँचे भवन, सड़कें, फ़्लाईओवर वगैरह बनवाने के चक्कर में पेड़ काटते गए। पेड़ों को काटने से न केवल हमसे पेड़ों की शीतल छाया छिनती चली गयी, बल्कि पेड़ों से वातावरण को मिलने वाली प्राकृतिक नमी भी कम होने लगी। ऑक्सीजन की कमी वाली प्रदूषित हवा से हमें हृदय, फेफड़ों आदि की बीमारियाँ होने लगीं। अपना नुकसान तो हमने किया ही, इन नन्हे पक्षियों से उनका प्राकृतिक आवास भी छीन लिया।

बड़े पेड़ नहीं होंगे तो ये घोंसले कहाँ बनायेंगे? पेड़ों की मज़बूत शाखाओं में इनके घोंसले बनते हैं और पेड़ों में होने वाले कीट-पतंग, फल-फूल, बौर, फलियाँ और पत्तियाँ इनका दाना-पानी बनते हैं। आमतौर पर पेड़ों की पत्तियों पर पड़ने वाली ओस की बूँदों से ये अपनी प्यास बुझाते हैं, लेकिन गर्मियों में इन्हें अतिरिक्त पानी की आवश्यकता होती है। मात्र पेड़ छीनकर हमने इनके जीने का सारा सहारा छीन लिया। उसके बाद हम प्रलाप करते हैं कि अमुक चिड़िया विलुप्त हो गयी।

प्रकृति में मौजूद प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक प्राकृतिक धरोहर का अपना महत्त्व है। विशाल पर्वत, असीम महासागर आवश्यक हैं, तो कल-कल बहती नदियाँ, झर-झर झरते झरने, नहर, तालाब और जलाशय भी आवश्यक हैं; बड़े-बड़े वृक्ष आवश्यक हैं, तो छोटे फूल-पौधे भी बेहद ज़रूरी हैं; रेतीले रेगिस्तान में काँटों-भरे कैक्टस भी आवश्यक हैं; विशाल से विशाल पशु और छोटी से छोटी चिड़िया का भी प्रकृति में अपना महत्व है; यहाँ तक कि कीट-पतंगों का जीवन भी प्रकृति के संतुलन के लिए आवश्यक है।

प्रकृति के ये सभी तत्व एक चक्र में आपस में बंधे हैं, इन सबकी एक तरह की फ़ूड-चेन बनी हुई है। एक भी कड़ी टूटने का असर इन सभी पर पड़ता है। हमने तो वृक्ष काटकर, नदियाँ-झरने-जलाशय सुखाकर, पर्वतों पर अप्राकृतिक निर्माण करके प्रकृति की अनमोल धरोहर की न जाने कितनी कड़ियों को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिया। और अब न जाने कितनी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करते हैं। जिनमें सूखे की समस्या सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है।

जल ही जीवन है। ऐसा हम दशकों से कहते आ रहे हैं। लेकिन क्या यह वक्तव्य केवल एक ‘अलंकृत वक्तव्य’ जैसा ही प्रतीत नहीं होता? जल के संरक्षण के लिए हमने कितने प्रयास किये? यदि किये तो परिणाम क्यों नहीं मिले?

पहले जहाँ नल थे वहाँ नलों में पानी था और जहाँ नहीं थे वहाँ कुओं, जलाशयों, तालाबों और नदियों में पानी था। कुल मिलकर इंसान ही नहीं पशु-पक्षियों की भी प्यास बुझती थी। लेकिन आज ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या से पूरा विश्व जूझ रहा है। जल की ऐसी कमी हो गयी है कि इसे खरीदकर पीना पड़ता है। हम तो खरीद लें, लेकिन पशु-पक्षियों का क्या? यदि हम इनके लिए प्राकृतिक या प्रकृति जैसा कोई प्रबंध नहीं करेंगे तो क्या ये लगातार गर्म होती इस धरती पर जीवित बच सकेंगे?

यह हमारी अदूरदर्शिता ही है कि हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थ की पूर्ति के लिए प्रकृति के संसाधनों को नज़रअंदाज़ करते हैं। कहीं इनका शोषण करते हैं, तो कहीं दोहन। हमारा स्वार्थ वास्तव में हमारा ही नुकसान कर रहा है। हम समझते हैं कि हमारे जीवन में पशु-पक्षियों का कोई महत्त्व नहीं है, और इसीलिए उनके रहने, या न रहने से हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। जबकि सबसे बड़ा सच यही है कि प्राकृतिक असंतुलन का असर केवल पशु-पक्षियों पर ही नहीं, हम इंसानों पर भी ज़रूर पड़ता है। प्रकृति में सभी प्राणी, जीव-जंतु, पेड़-पौधे और हम इंसान भी आपसी सामंजस्य में रहते हैं। एक की कमी से दूसरे का जीवन प्रभावित होता ही है।

यद्यपि हम प्रकृति को नुकसान पहुँचाने में बहुत आगे निकल गए हैं। लेकिन फिर भी, यदि ईमानदारी से प्रयास करें तो ऐसा भी नहीं कि हम इन जीवों को बचा नहीं सकते। देश के विभिन्न क्षेत्रों से विलुप्त हुई गौरैया अब बहुत से स्थानों में वापस भी आने लगी है। कुछ स्वयंसेवी संस्थानों और कुछ आम लोगों के प्रयासों से ही ऐसा संभव हो सका। अतः, स्थिति पूरी तरह से निराशाजनक भी नहीं। लेकिन परिणाम तभी मिलेंगे जब हम एकजुट होकर सही दिशा में प्रयास करें।

कुछ प्रयास हम-आप निजी स्तर पर भी कर सकते हैं -

आसपास वृक्षारोपण करें। वृक्षों के बड़े, मज़बूत और छायादार होने तक इनकी रक्षा करें, पूरी देखभाल करें।

ध्यान रखें कि पेड़ों के बीच समुचित दूरी भी बनी रहे। रास्ते छायादार रहें, लेकिन जंगल भी न बनें।

नदियों, जलाशयों के आसपास भी पेड़ लगाएँ। पेड़ों की जड़ें मिट्टी को बाँधती हैं, और पानी के कीटाणुओं को प्राकृतिक रूप से सोखती है। इससे नदियों के आसपास जहाँ एक ओर मिट्टी का कटाव कम होता है, पानी साफ़ होता है, वहीं दूसरी ओर इनकी छाया में अनेक पक्षियों को ठिकाना भी मिलता है। उन्हें उनका दाना-पानी आसपास ही मिल जाता है, जिससे उनका जीवन कुछ सहज और सरल हो सकता है।

जहाँ पेड़ लगाना संभव न हो, वहाँ गमलों में ही छोटे-छोटे पौधे लगाएँ। जितनी हरियाली होगी, वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा उतनी ही बढ़ेगी, पर्यावरण उतना ही अधिक शुद्ध होगा, और मनुष्य सहित सभी जीवों का जीवन उतना ही अधिक सहज हो सकेगा।

बस थोड़े से प्रयास से हम पक्षियों की सहायता कर सकते हैं। अपने घरों के बाहर ऊँची जगहों में किसी खुले बर्तन में साफ़ पानी रखें, ख़ासतौर पर गर्मियों में। ताकि कोई थकी हारी चिड़िया गर्मी के कारण जान से हाथ न धो बैठे।

जहाँ कहीं भी संभव हो, छोटे-बड़े तालाब, जलाशय वगैरह का प्रबंध करें।

यदि हम ऐसा कर सके, तो यकीन मानिये, एक बार फिर हमारे घर-आँगन, बालकनी और छतें हमेशा पक्षियों के कलरव से गुंजायमान रहेंगे। चूं-चूं करती आई चिड़ियों के साथ हमारे बच्चे सदा ही हँसते-खिलखिलाते रहेंगे।

 

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परिंदों की चिंता "प्रकृति दर्शन" त्रैमासिकी में मेरा लेख - पृष्ठ 39-41आकर्षक एवं भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए, हृदय से...

Posted by Garima Sanjay on Friday, June 29, 2018