मानव तस्करी – चाइल्ड ट्रेफ़िकिंग

मानव तस्करी - चाइल्ड ट्रेफ़िकिंग

जब भी बच्चों पर हो रहे अपराधों, अत्याचारों की घटनाएँ सामने आती हैं, अधिकतर दिल दहल उठते हैं।
कहने को बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं, हमारे भावी समाज के कर्णधार हैं, लेकिन वास्तव में तो वे समाज की सबसे कमज़ोर कड़ी हैं...
जिनपर अत्याचार करना भी आसान है, और जिनका व्यापार भी आसान है। सच तो यही है कि व्यापारियों के लिए बच्चे हमारे समाज की कोई मासूम धरोहर नहीं होते... वे तो बस 'माल' होते हैं जिन्हें बेचा और खरीदा जाता है!

हमारे देश में ही नहीं, पूरे विश्व में बड़ी संख्या में मानव-तस्करी हो रही है। इस तरह की मानव-तस्करी में बच्चों और हर उम्र की लड़कियों/महिलाओं की तस्करी (child & human trafficking) लगातार होती है, जिनके साथ केवल एक बार दुष्कर्म ही नहीं किये जाते, उन्हें देह-व्यापार में धकेला जाता है, कहीं उनके अंगों को बेचकर उन्हें मार दिया जाता है, तो कहीं अंग-भंग करके उनसे भीख मंगवायी जाती है, और जाने क्या-क्या करके न जाने किस हद तक मानवता को शर्मसार किया जाता है।

किस-किस तरह की हैवानियत से वे गुज़रते हैं, वे ही जानते होंगे!

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में करीब अस्सी हज़ार अपहरण के केस दर्ज हुए, जिनमें से लगभग पचपन हज़ार बच्चों के अपहरण हुए। इस अस्सी हज़ार में भी बड़ी संख्या में, करीब साठ हज़ार केस लड़कियों और महिलाओं के अपहरण के हैं। आँकड़े स्पष्ट करते हैं कि हर साल हमारे देश में बड़ी संख्या में महिलाओं और बच्चों की तस्करी होती है, जिनमें से अधिकाँश को देह व्यापार में लगाया जाता है।

हम सभी जानते हैं कि इस तरह का कारोबार करने वालों का नेटवर्क बहुत बड़ा है... हर तरह के ताकतवर लोग भी इसमें शामिल होते हैं। और यह कारोबार बरसों से बिना लगाम चल रहा है।

ये बात हममें से किसी से भी छुपी नहीं है। आखिर, हर गली-नुक्कड़ और चौराहे या धार्मिक स्थल पर भीख माँगते बच्चे-बूढ़े और जवान मिल जाते हैं, और हर शहर, गाँव और कस्बों में देह-व्यापार की मार्किट खुलेआम चलती है। सब जानते हैं, सब देखते हैं, लेकिन सभी आँखें मूँदे रहते हैं।

जो भी कमज़ोर हुआ... शक्ति, सामर्थ्य या धन से, वह ही इन कारोबारियों का शिकार बन सकता है! ऐसे में गरीब परिवारों के बच्चे, लड़कियाँ और महिलाएँ इन कारोबारियों की आसानी से निशाना बनते हैं।

हम ये भी भूल नहीं सकते कि इस तरह के कारोबार में स्त्री-पुरुष बराबर से लिप्त हैं... मासूम बच्चों के प्रति भी करुणा-दया-प्रेम जैसे सहज मानवीय भाव इन स्त्री-पुरुषों के अन्दर से कहाँ गायब हो जाते हैं? पता नहीं!

मैं यह नहीं कह सकती कि इस तरह के विशालकाय धंधों को हम रोक सकते हैं... लेकिन यह ज़रूर समझने की कोशिश कर रही हूँ कि बात-बात पर कैंडल-मार्च निकालने वाले बुद्धिजीवियों को कभी इनकी सुधि कैसे नहीं आई?