ये भी राजकुमार… (लघुकथा)

राजकुमार (लघुकथा)

 

वो भी तो है एक राजकुमार। अपनी माँ की आँखों का तारा, उसका लाडला, उसका राजकुमार...

घर के आँगन में अपने नन्हे-नन्हे, सुकुमार क़दमों से डगमगाता चलता, कभी गिरता, कभी संभलता, दादी-दादा का राजदुलारा, उनका राजकुमार...

देखते-देखते सयाना हो गया... यों तो बालक ही था, लेकिन तेरह-चौदह बरस का बालक घर-परिवार की ज़रूरतें देखते-समझते सयाना हो ही जाता है। सो, पहुँच गया शहर में नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खाने, अपने पैरों पर मज़बूती से खड़े होने, राजकुमार।

छोटे-से ढाबे में आख़िर नौकरी पा ही गया... कभी लोगों को खाना-पानी देता, तो कभी बर्तनों पर अपने हाथ भी रगड़ता, वो राजकुमार।

कभी दुतकारा जाता, तो कुंठित हो ख़ुद भी गालियों की बौछार करता... कभी कोई पुचकार देता तो बस, अल्हड़ता से हँस देता! हर अजनबी को संदेह से देखता, सतर्क रहने की कोशिशें करता, वह राजकुमार, कभी किसी नशे का भी शिकार हो जाता!

सड़क किनारे, फुटपाथ पर अपने एक ही कंबल को कभी बिछाता तो कभी ओढ़ता, सो जाता राजुकमार... ... ...

तपती कड़क दोपहरी हो, या ठिठुरती ठंड, खुले आसमान के नीचे कैसे सो जाते हैं, अपने घर-परिवारों के राजकुमार? देखने वालों को इंसान जैसे लगते ही नहीं!

समर्पित : शहरों के फ़ुटपाथों पर ज़िंदगी बसर करते, सोते सभी राजकुमारों को...

ज़िंदगी सचमुच बहुत कड़े इम्तिहान लेती है!

 

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