लोहड़ी की धूम के बाद… (लघुकथा)

उसकी आँखों में सपनीली सी चमक थी। सखी-सहेलियों के साथ लोहड़ी की धूम मचाकर घर वापस आई थी। घर लौटते ही मोबाइल फ़ोन पर चैट किया, और मुलाक़ात तय हो गई।

कुछ मिनट तो यूँ ही आसानी से निकल गए, लेकिन धीरे-धीरे बेसब्री बढ़ने लगी। ‘आया क्यों नहीं अब तक’ दिल बारबार यही सवाल करता। निगाहें रह-रहकर दरवाज़े पर टिक जातीं। न माँ की आवाज़ सुनाई देती और न ही पापा की डाँट का कोई डर था। उसके लिए तो अब एक-एक पल काटना कठिन हो रहा था। सब्र का बाँध टूटने लगा तो जाकर दरवाज़े पर ही खड़ी हो गई। बीच-बीच में फ़ोन चेक करती। आँखों में कभी बेचैनी तो कभी गुस्सा उभरता।

“कहाँ रह गए?” आख़िर उलझन में बुदबुदा पड़ी। आँखों की चमक मुरझाने लगी थी। समय काटना कठिन हो रहा था।

सहसा दूर से एक स्कूटी की हेडलाईट चमकती नज़र आई! उसकी आँखों की चमक वापस आ गई। ‘लेकिन यह क्या! ये तो कोई और था!’ आँखों में फिर से निराशा छा गई।

कुछ मिनट और उसी बेसब्री में कटे कि एक बार फिर एक स्कूटी की हेडलाईट चमकी। इस बार उसने ख़ुद को बेवकूफ़ न बनने दिया। आँखें फाड़े ध्यान से देखने लगी कि ये उसी की स्कूटी है या फिर कोई और! धीरे-धीरे स्कूटी नज़दीक आ रही थी और साथ ही, उसकी आँखों में चमक भी वापस लाती जा रही थी। उसके ठीक सामने आकर स्कूटी रुक गई। उसकी ख़ुशी उसकी आँखों से छलकी ही चली जा रही थी।

सवार ने अपना हेलमेट उतारा, देखकर उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। मानो जन्नत मिल गई हो!

सवार ने स्कूटी की डिक्की से पार्सल निकालकर उसके आगे बढ़ा दिया, “मैडम, आपका खाना!”

पेट में चूहे कूद रहे थे। ऐसे में मनपसंद खाने से अधिक प्यारा कौन होगा?

#प्यारयहभी