फ़िल्म पद्मावत

कल पद्मावत देखी। देखनी ही थी! आखिर जिस फ़िल्म के कारण इतनी हिंसा हो रही है, जो फ़िल्म अपने विवादों के कारण लगातार सुर्ख़ियों में बनी है, उसे देखना ही था।

यों भी राजपूत आन-बान, वैभव, वीरता आदि को दर्शाती कहानियाँ और फ़िल्में मेरी कल्पनाओं को कुछ नए पंख देते हैं... इसलिए, विवादों में न पड़ने पर भी संभव है मैं फ़िल्म को ज़रूर देखती।

पूरी फ़िल्म के दौरान मैं राजपूतों के खिलाफ़ विवाद के कारण खोजती रही, लेकिन फ़िल्म के वर्तमान रूप में ऐसी कोई भी बात नज़र नहीं आयी जिसके कारण फ़िल्म का इतना विरोध हुआ! हाँ, यह ज़रूर है कि खिलजी के सपने के जिस दृश्य को लेकर विरोध की शुरुआत हुई थी, वह दृश्य संभवतः विरोध के लायक रहा हो, लेकिन उसे हटा ही दिया गया था... या फिर, ऐसा कोई दृश्य फ़िल्म में पहले भी कभी था ही नहीं?

सामान्यतः हम अपने मध्य-युगीन इतिहास में राजपूतों के जिस व्यवहार के कारण उन्हें दोषी करार दे देते हैं। फ़िल्म में बहुत ही तर्कपूर्ण तरीके से उसे न्यायसंगत सिद्ध किया है। राणा रतन सिंह, बादल सिंह और रानी पद्मावती के बीच संवादों के माध्यम से फ़िल्म में राजपूतों की राजनीतिक कुशलता को भी उचित ढंग से दर्शाया है। गलतियाँ हुईं, इसे कौन नकार सकता है? लेकिन उन गलतियों के पीछे कारण यह नहीं था कि राजपूत विभाजित थे, या फिर वे अपनी उच्च संस्कृति और शान-ओ-शौकत में मगरूर हो चुके थे। देखा जाए तो असल कारण तो यह था कि वे बुराई के साथ भी अच्छा करने की कोशिश करने में लगे थे... यानी, शायद उन्होंने अपने शास्त्रों को थोड़ा-बहुत बिसरा दिया था? “शठे-शाठ्यं समाचरेत” (दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए) भूल गए थे? महाभारत और भगवद्गीता की शिक्षाओं को भूल गए थे? या फिर, उन्हें गलत मानने लगे थे? क्या पता? उन कठिन परिस्थितियों में उनकी मानसिक और भावनात्मक स्थिति पता नहीं कैसी रही होगी!

दूसरी अच्छी बात जो मुझे लगी... इतिहास की दुहाई देकर साहित्य को झुठलाने वालों, और विशेष रूप से इतिहास के अभाव में हमारे शास्त्रों और ज्ञान की प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाने वालों को भी फ़िल्म ने करारा जवाब दिया है! अभी हाल ही में लोगों ने कह दिया कि महारानी पद्मावती का कभ कोई अस्तित्व ही नहीं था!

क्यों? क्योंकि इतिहास लिखने वाले तत्कालीन खुसरो ने उनके बारे में लिखा ही नहीं!

अरे भई, खिलजी के कर्मचारी उसका प्रशस्ति-गान करेंगे या उसकी शिकस्तों का बखान करेंगे? इस मामले में फ़िल्म बहुत अच्छी लगी, क्योंकि मैं खुद भी हमेशा से यही मानती रही हूँ!

कुल मिलकर राजपूतों (या फिर समस्त सनातन समाज) के नज़रिए से तो यही महसूस हुआ कि हमारी कोई बुराई नहीं की गयी है, बल्कि हमारी उच्च संस्कृति, उन्नत विचार, समृद्धि और वैभव, शक्ति और साहस, युद्धनीति-राजनीति सभी को बहुत सम्मानजनक तरीके से दर्शाया गया है।

फ़िल्म में भारतीय उन्नत संस्कृति और खिलजियों की कबाली का एक बहुत ही सुन्दर विषमता भी प्रस्तुत की है... देखकर सहज ही खुद पर नाज़ हो उठता है!

फिर किसके बहकावे में आकर इस तरह का विरोध हुआ?

लेकिन फिर भी, फ़िल्म देखते समय कितनी ही बार मुझे लगा मैं क्यों यहाँ बैठी हूँ? कारण... फ़िल्म के अंतिम कुछ मिनटों को छोड़कर पूरी फ़िल्म का केंद्र खिलजी ही था। बहुत समय तक यही लगता रहा कि मैं खिलजी पर फ़िल्म देख रही हूँ। ऐसा महसूस हो रहा था कि उसके दुर्गुणों का बखान करती एक नेगेटिव हीरो वाली फ़िल्म बनायी गयी है।

केवल अंत में पद्मावती और रतन सिंह के साथ-साथ सम्पूर्ण चितौड़ पर फ़ोकस बढ़ाया गया है। ऐसे में, यदि फ़िल्म का नाम ही खिलजी रख देते तो क्या बुराई थी?

अंत में, जौहर का दृश्य बहुत ही सशक्त तरीके से फ़िल्माया गया है। पता नहीं, वास्तव में ऐसे ही दृश्य हुए होंगे या नहीं, लेकिन प्रस्तुति बहुत ही सुन्दर है... हाँलाकि, उतनी ही दर्दनाक भी है! जीते-जी आग के दरिया में समा जाना... कितनी हिम्मत... और साथ ही, आततायी से कितनी आतंकित रही होंगी वह सभी वीरांगनाएँ!

विराम देने से पहले एक बात और जोड़ना चाहूँगी... समझ नहीं पायी, संजय लीला भंसाली ने पहले बाजीराव के रूप में रणवीर सिंह को नचा दिया, और इस बार खिलजी के रूप में! पर चलिए... इसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मान सकते हैं!

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