मैं पद्मावती। पता नहीं, मैं थी भी, या नहीं!
साहित्य कहता है, मैं वीरांगना थी, जिसने आबरू बचाने के लिए खुद को आग की दहकती लपटों में झोंक दिया। जीते-जी खुद को चिता के हवाले कर देना क्या मामूली बात है? लोग तो अपनों के मृत शरीर को भी काँपते हाथों से आग देते हैं!
लेकिन इतिहास बताता है, यह सब कोरी कल्पना है!
सच है कि एक खिलजी था। सच है कि चित्तौड़गढ़ भी था। सच है कि वहाँ एक राजा रतनसेन भी था। लेकिन रानी थी या नहीं, क्या पता? क्या पता खिलजी ने केवल चित्तौड़ पर कब्ज़ा करने को आक्रमण किया था, या सचमुच रानी को अपने हरम में लाने की कोशिश की थी?
यह संदेह क्यों हुआ? क्योंकि इतिहास लिखने वाले कोई मेरे अपने ही न थे! क्योंकि इतिहास लिखने वालों ने मेरा ज़िक्र ही नहीं किया! पता ही न था, कि इतिहास न लिखने की हमारी परम्परा सुदूर भविष्य में हमारे अस्तित्व को ही कटघरे में ला खड़ा करेगी! कभी सोचा ही न था कि काव्य या साहित्य के भरोसे अपना बखान करने वाले भविष्य में अंधकार में ही खो जायेंगे!
पता ही न था, कभी भविष्य में हमारे अपने ही हमारे होने का सबूत मांगेंगे!
जो इतिहास लिखा गया, वह तो खिलजी का था! मेरे वजूद पर ही संदेह करने वालों को कहाँ तक जा-जाकर समझाऊँ कि खिलजी का इतिहास लिखने वाले क्यों कर ये लिखेंगे कि उसने एक रानी को हथियाने की कोशिश की! किसी और की पत्नी को यूं हथियाने कि कोशिश की, मानो वो कोई “चीज़” हो... जीती-जागती इन्सान नहीं! क्यों बताएँगे कि उस रानी ने खिलजी के हाथ पड़ने से बेहतर समझा आग में कूद जाना? कैसे बताएँगे कि उनका शासक बलात्कारी था? या लुटेरा था?
लेकिन साहित्य पर भी कैसे भरोसा किया जाये? इतिहास इसे नहीं मानता! आखिर, साहित्य तो कपोल कल्पित है, जबकि इतिहास में साक्ष्य हैं। तभी तो, वेद भी कल्पित हैं, और पुराण भी मिथ्या (मिथ) हैं! इनकी तारीखों के साक्ष्य कहाँ? ज्ञान हो, या नहीं, साहित्य तो ऐसा ही है! कल्पनाओं में विचरता... यथार्थ से दूर!
ऐसी ही एक कल्पना हूँ, मैं पद्मावती भी! मैं कहाँ कूदी उस भीषण आग के दरिया में? कौन सी इज्ज़त का ख़तरा था, जो जीवन छोड़ भयावह मौत को गले लगा लिया?
लेकिन क्या कहूँ, साक्ष्यों और यथार्थ से भरपूर तुम्हारे आज को भी? आज मेरे रखवाले, मेरे सम्मान के नाम पर तोड़फोड़ करते हैं... कहते फिरते हैं, दीपिका की नाक काटेंगे... चूँकि वह एक अभिनेत्री है इसलिए स्त्री नहीं! इज्ज़त की पात्र नहीं? क्या उसमें मेरा वास नहीं? संस्कृति, संस्कारों का किस्सा क्या यहीं आकर ख़तम होता है?
तुम जो भी मानो, या न भी मानो...
सच तो यही है कि मैं अब भी जी रही हूँ, देश की अनेकानेक बालाओं में!
आज भी घूँघट में छुपी, पल-पल मरती, डरती उन महिलाओं में, जिन्हें हर कदम एक खिलजी का डर है।
बचपन में ही ब्याह दी जाने वाली उन कन्याओं में, जिन्हें कभी भी किसी खिलजी, किसी देवपाल के हाथों लुट जाने का डर है।
गर्भ में ही ख़तम कर दी जाने वाली अनगिनत भ्रूण में, जिनकी ज़रुरत खुद उनकी माँओं को भी नहीं होती।
कहीं दहेज़ की आग में झुलसती भी मैं ही हूँ, तो कहीं एसिड-अटैक से बिलखती भी मैं ही हूँ।
घरों की चहारदीवारियों में छुपा के रखी जाने वाली हर उम्र की बच्ची, लड़की, युवती, महिला में, जिन्हें कदम-कदम पर किसी खिलजी से बचना पड़ता है...
घूँघट-वूंघट छोड़, अपनी काबिलयत, अपनी शिक्षा की बदौलत आगे बढ़ने की कोशिश करने वाली प्रगतिशील बालाओं में भी तो मैं ही हूँ, जिन्हें हर क्षण, हर कदम किसी खिलजी के हाथों बर्बाद होने का ख़तरा मोल लेना पड़ता है!
कोठों पर बैठी उन बिकाऊ ‘चीज़ों’ में भी क्या मैं नहीं जिन्हें न जाने कितने खिलजी रोज़ कुचलते हैं, और फिर आगे बढ़ जाते हैं अपने साफ़-सुथरे, संभ्रांत समाज में?
ये सब की सब रोज़ मेरे पास आ, चीख-चीख कर कहती हैं... केवल तुम पद्मावती नहीं, हम भी हैं!
जबतक खिलजियों से भरी पड़ी है ये दुनिया, तुम मर कैसे सकती हो?
तुमने कब जौहर किया? तुम कब इस दुनिया से गयीं?
देखो, हमने अपने भीतर तुम्हें कैसे सँजोए रखा है!
देखो, मैं भी पद्मावती...
मैं भी पद्मावती!
सुंदर .. यह हैरानी की ही बात है कि नारी अस्मिता की बात करने वाले भी पद्मावती के अस्तित्व को नकार रहे हैं
जी, भ्रमित जो हैं! इतिहास स्वीकारें, साहित्य नकारें, बलिदान नकारें या फिर नारी की अस्मिता की सोचें?
अतिसुन्दर गरिमा जी
शुक्रिया, युवराज जी
Bahut hi achcha article likha hai Garima!
Thanks, Rachana
Each line written by you.. Is so much true in today’s …scenario… This is the biggest irony that still khilji ‘s exist… But no one ready to accept that.. Even Padmavati.. Can also exist???
Thanks, Pragati… there are numerous issues existing in our society which need more serious approach… but we don’t do so
Very well written .
Thanks, dear
Sachmuch jhakjhor dene Wala prashansniya lekh Hai Garima ???lekin samaj k thekedaron k pass ise padhne or samajhne ki fursat hi nahi ….. movie ka virodh or vidroh itna SAR chadh Gaya Hai ki masoom bachchon ki school bus PE bhi pathraav Karne se baaz nahi aaye…
विरोध का उन्माद ही ऐसा होता है.. हम जिनका विरोध कर रहे होते हैं, उनके जैसे ही हो जाते हैं…
Very heart touching article..But why certain vested interest individuals politicize each issue for their petty self interest.
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