सघन होता अंधकार

घनघोर काली, अंधेरी रात से काले पुते हुए कैनवास के सामने तूलिका थामे बैठी थी, कृति।

अँधेरे कमरे में यदि कुछ दिखाई दे रहा था तो धवल श्वेत कपड़ों में लिपटी कृति और पैडेस्टल लैंप की रोशनी में चमकता उसका कैनवास, जिसे उसने स्वयं अपनी ही तूलिका से काला रंग दिया था।

जीवन के रंगों को कैनवास पर उकेरने के प्रयास में आरंभ तो चटकीले लाल और प्रकृति के नीले-हरे रंगों से किया था, लेकिन जाने कब उसकी तूलिका में इतने गहराते रंग समाने लगे कि पूरा कैनवास धीरे-धीरे गहन अँधेरी रात की चादर में समाने लगा। देखते ही देखते कैनवास पर केवल काली शून्यता दिखाई दे रही थी।

स्तब्ध कर देने वाली इस शून्यता को देखकर स्वयं कृति भी स्तब्ध थी।

उसके लिए समझना कठिन था कि हर काली रात के बाद उषा की दमकती रोशनी में जीवन की सकारात्मकता को सहजता से तलाश लेने वाली उसकी तूलिका इतनी काली कैसे हो गई?

यह तो उसके विचारों के प्रतिकूल, उसके स्वभाव से विपरीत थी।

नकारात्मकता से भरपूर, बाहरी कालिमा के प्रभाव में अंतस् में इतने सघन अंधकार की शून्यता कब पनपती चली गई कि घनघोर तमस में भी ज्योति की लौ ढूँढ लेने वाली कृति की रचना ही पूरी तरह स्याह हो गई?

जीवन का स्याह रंग उसकी अपनी कृतियों पर कैसे ऐसा असर करने लगा था?

उसने ऐसा कैसे होने दिया?

उसने प्रतिरोध क्यों न किया?

अंतस् में हावी होते स्याह रंग से उसने संघर्ष क्यों न किया?

बाहरी दुनिया की कालिमा को उसने भीतर कैसे उतरने दिया?

जीवन में क्या पहले कभी कालिमा ने घेरा न था?

यह तो जीवन का अहम् रंग है। इसके बिना जीवन संभव ही कहाँ है?

हाँ, अंतस् को प्रभावी किए बिना इस कालिमा से गुज़र जाएँ, तो यही मार्ग अनंत प्रकाश की ओर ले जाता है।

बिखरे बालों के साथ सिर झुकाए कृति ने गर्दन को थोड़ा सा उठाया।

खिड़की से झाँकती उषा के सूर्य की मद्धम किरणें उसके मस्तक पर पड़ने लगी थीं।

आँखें उठाकर कृति ने अपने सामने पड़ी रंगों की पैलेट को देखा।

तूलिका में पीले और लाल रंग का मिश्रण लिया, और सधे हुए हाथ से अपनी तूलिका काले कैनवास के मध्य चला दी।

घनघोर स्याह अंधकार के बीच सूर्य की किरणें दमकने लगीं थीं।

अनंत शून्य के बीच प्रकाशमान राह दिखाई देने लगी थी।

उस गहन शून्य में शिवत्त्व खोजती कृति की आँखों से अनजाने ही एक मोती टपक गया।

दृष्टि पहले से स्पष्ट हो गई थी।

आँखों के सामने शब्द उभर रहे थे – तमसो मा ज्योतिर्गमय!

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