कहानी – फिर मिल गए

फिर मिल गए

 

‘नितिन?’ भीड़ से भरे शॉपिंग मॉल में भी अपना नाम सुनकर नितिन चौंका। पलटकर देखा तो एक जानी पहचानी सी शक्ल दिखी। पहचानने की कोशिश में अब तक दोनों ही एक दूसरे के करीब आ गए।

‘अंकिता?’ नितिन के स्वर में संदेह स्पष्ट था। सामने खड़ी उसकी पुरानी सहपाठिनी के चेहरे पर मुस्कराहट कानों तक फ़ैल गयी। ‘ओह माय गॉड! अंकिता! तुम अंकिता हो न? इतने दिनों बाद!’

‘दिनों बाद? सालों बाद, बोलो, नितिन!’ बोलकर वह ठठाकर हँसी।

‘हाँ, हाँ.. वही मेरा मतलब... सालों बाद!’ नितिन ने थोड़ा झेंपते हुए अपनी गलती सुधारी।

‘कहाँ हो आजकल? क्या कर रही हो?’

सवालों की झड़ी लगती, इससे पहले ही अंकिता ने रोक दिया, ‘कहीं बैठकर बातें करें? या अब मुझे एक कप कॉफ़ी भी नहीं पिला सकते?’

‘अरे! तुम तो...’ नितिन एक पल को भौंचक्का रह गया। ‘कुछ सहमी, कुछ सकुचायी, अपने में ही रहने वाली अंकिता कितनी बिंदास हो गयी है!’ सोच में पड़ गया, फिर थोड़ा ठहरकर बोला, ‘बहुत बदल गयी हो!’

‘हालात सभी को बदल देते हैं, जनाब! तुम भी तो देखो, कितने बदल गए हो!’ बोलकर ज़ोर से हँसी और दोनों एक कैफ़े की ओर बढ़ गए।

‘मैं बदल गया हूँ?’ चलते-चलते नितिन ने धीमे से पूछ ही लिया। उसके अनुसार वह कल भी कूल था, और आज भी सुपर कूल ही है।

‘क्यों? तुम्हें नहीं लगता?’ सवाल पर सवाल वापस धरकर वह एक बार फिर हँसी और नितिन का सवाल वहीं का वहीं रह गया।

‘अब बताओ, अचानक कहाँ गायब हो गयीं थीं? मैंने कितने...’ कुछ बोलने वाला था, लेकिन ठहरा, और जैसे वाक्य में सुधार किया, ‘कहाँ थीं अब तक? और इतने दिन क्या किया?’ दो कप कॉफ़ी और कुछ स्नैक्स का ऑर्डर देकर टेबल पर आते ही नितिन ने पूछा।

‘तुम तो जानते ही हो, यहाँ नानी के पास रहती थी। ग्रेजुएशन पूरा भी नहीं हुआ था कि नानी अचानक गुज़र गयीं। फिर मम्मी-पापा मुझे अपने साथ ले गए। इसके बाद सारी पढ़ाई वहीँ उनके पास रहकर की।’

नितिन जानता था कि अंकिता के पिता की नौकरी विदेश में थी। माँ उनके साथ ही रहती थीं। एक बड़ा भाई था, जो कहीं हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहा था। और अंकिता यहाँ नानी के पास मज़े से रहती थी।

‘ओह!’ उसकी नानी की मृत्यु पर अफ़सोस जताकर नितिन ने आगे पूछा, ‘तो अब इतने साल बाद यहाँ कैसे?’

‘हमारा टीवी चैनल अपना एक प्रोजेक्ट यहाँ शुरू करने वाला है। मैं इस जगह से बचपन से वाकिफ़ हूँ, इसलिए मुझे भेजा गया है। शाम होने पर सोचा थोड़ा घूम लूँ... थोड़ी शॉपिंग हो जाएगी और कुछ पुरानी यादें भी ताज़ा हो जाएँगी।’

‘पुरानी यादें...’ नितिन बुदबुदाया और कुछ गंभीर हो गया। फिर, अचानक जैसे खुद को झकझोरा और खिलकर मुस्कुराते हुए बोला, ‘पुरानी यादें? यानी स्कूल-कॉलेज की यादें? यहाँ मॉल में?’

एक बार फिर अंकिता हँस पड़ी। नितिन का व्यंग्य समझ रही थी। कॉलेज के समय में तो वे लोग कभी मॉल आये ही नहीं। नितिन भले ही एकाध-बार कुछ दोस्तों के साथ एकाध मॉल में गया भी होगा, लेकिन अंकिता? उसका तो सवाल ही नहीं उठता था! फिर, यहाँ बचपन की कौन सी यादें खोजने आई थी वह?

‘अच्छा बताओ, बाकी सारे दोस्त कहाँ हैं?’ इस बार सवाल-जवाब का सिलसिला जो चला वो सचमुच दोनों को स्कूल, और फिर कॉलेज के दिनों की यादों में घसीट ले गया। दोनों पहले एक ही स्कूल में पढ़े और फिर एक ही कोर्स में एक ही कॉलेज में एडमीशन लिया। पता नहीं कितनी देर दोनों अपने दोस्तों के बारे में बातें करते रहे, स्कूल और कॉलेज के दिनों की यादें ताज़ा करते रहे, और कभी हँसते तो कभी खिलखिलाते रहे। थोड़ी देर के लिए ऐसा लगने लगा था कि वे दोनों अभी भी स्कूल के बच्चे ही हैं! जबकि आज अंकिता एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मनोरंजन चैनल में ऊँचे ओहदे पर पहुँच गयी थी और नितिन अपने पापा की छत्र-छाया में काफ़ी बड़ा व्यापारी बन गया था।

दुबली-पतली, खुद में सिमटी रहने वाली अंकिता जहाँ आज आत्मविश्वास से भरपूर स्मार्ट एग्ज़ीक्यूटिव बन चुकी थी, और तो नितिन का आकर्षण भी कुछ कम नहीं रहा था। फिर अंकिता ने यह क्यों कहा कि वह भी बदल गया था? सहज बातों के दौरान भी नितिन के मन में ये बात रह-रहकर खटक रही थी।

‘वैसे...’ नितिन फिर से उसी बात पर आना चाहता था, ‘पहले तुम इतना न बोलती थीं। मुझसे तो जल्दी बात भी नहीं करती थीं। आज तो तुमने खुद से ही मुझे पुकारा... इतनी कैसे बदल गयीं?’

एक बार फिर वह जोर से हँसी, ‘अरे! मैंने आवाज़ दी, तुम्हें बुरा लगा?’

सीधा जवाब न पाकर नितिन कुछ खीझ उठा। देखकर अंकिता ने ही बात आगे बढ़ाई, ‘अच्छा पहले ये बताओ कि मेरे बदल जाने की शिकायत है या तारीफ़?’

इस बार नितिन खुलकर मुस्कुराया। ‘शिकायत नहीं है, अच्छा लगा... ये बदलाव...’

‘अच्छा तुमने ध्यान दिया? तुम भी तो कितने बदल गए हो!’ अंकिता की इसी बात पर तो उसका मन अबतक अटका था। झट से पूछ बैठा, ‘अच्छा? मैं कैसे बदल गया?’

‘अब देखो न! पहले हर लड़की के पीछे नज़र आते थे, और आज मॉल में मुझे देखा तक नहीं! भई, मुझे तो बहुत ताज्जुब हुआ।’

‘ऐसा बुरा भी नहीं था मैं,’ नितिन ने तुरंत उसकी बात काटी। ‘कभी तुम्हारे पीछे आया?’

‘वो तो इसलिए न कि मैं तुम्हारे टाइप की नहीं थी’

‘ओहो! मेरा टाइप? और वो क्या था, बताओगी ज़रा? मुझे भी तो पता चले’ नितिन जैसे कुछ चिढ़ गया था।

लेकिन अंकिता ने बेपरवाही से जवाब भी दे डाला, ‘लो, किसे नहीं पता कि तुम्हें तुम्हारे जैसी शरारती, मौज-मस्ती करने वाली लड़कियाँ पसंद थीं, मेरे जैसी तो तुम्हें ‘बहन जी’ लगती थीं न!’

खुद पर हँसने की चतुराई सीख चुकी थी वह! नितिन उसके आत्मविश्वास पर हैरान ही होता जा रहा था।

फिर भी जवाब देने में पीछे रहने वालों में वह कहाँ था? अपनी हैरानी को किनारे किया और तपाक से बोला, ‘वो तो इसलिए कि तुम्हारे जैसी किताबी कीड़ों के पास मौज-मस्ती के लिए टाइम कहाँ होता था? टाइम देतीं तो तुम भी हमारे गुट में होतीं। लेकिन तुम्हें तो...’

‘खैर, मेरी छोड़ो, तुम बताओ, ये बदलाव कैसे आ गया? अब लड़कियों के पीछे नहीं जाते?’

‘लड़कियों के पीछे मैं तब भी नहीं जाता था, मैडम।’ स्पष्ट था कि नितिन को यह आरोप बिलकुल भी नहीं सुहाया, ‘मैं बस दोस्ती करता था, मौज-मस्ती करने के लिए, और दोस्तों में लड़के-लड़कियाँ सभी शामिल थे।’

‘ओह सॉरी! तुम्हें तो बुरा लग गया!’ एक बार फिर अंकिता हँसी। बुरा तो उसे सचमुच लगा था, लेकिन अंकिता की हँसी के साथ ही मन हल्का भी हो गया।

‘चलो जाने दो, इतने साल बाद मिली हो, क्या तुम्हारी बातों का बुरा मानूँ’, नितिन धीरे-धीरे अपनी स्वाभाविक आत्मीयता पर आने लगा। ‘और बताओ, शादी हो गयी?’

‘मैं शादीशुदा लग रही हूँ?’ अंकिता ने एक बार फिर चतुराई से सवाल पर सवाल दागा।

‘कमाल करती हो, यार! शादीशुदा का कोई टैग होता है क्या? आजकल किसे देखकर समझ में आता है कि कौन शादीशुदा है और कौन नहीं।’

इस बार अंकिता ज़ोर से हँसी नहीं, धीमे से मुस्कुराई। कुछ देर खामोश रहकर धीमे से बोली, ‘वैसे शादी हुई थी मेरी... लेकिन हम साथ नहीं रह सके...’

इस मुलाकात में नितिन को पहली बार पुरानी वाली अंकिता की एक झलक नज़र आई, कुछ असहज, कुछ गंभीर। अविश्वास के साथ कुछ देर उसे देखता रह गया।

‘क्यों?’ थोड़ी देर खामोश रहकर धीमे से पूछा, ‘अगर मुझे बता सको तो...’

कितनी भी पुरानी सहपाठी थी, उससे उसके निजी जीवन पर सवाल पूछने पर संकोच तो होता ही।

‘ओहो! इसमें न बताने वाली क्या बात है?’, अंकिता ने वापस सहज होने का भरपूर अभिनय करते हुए कहा, ‘हमारी अरेन्ज मैरिज थी। शादी होते ही उसने महसूस किया कि मेरे जैसी बहन जी टाइप के साथ रहना उसके लिए संभव नहीं था... तो बस, हमने अलग होने का फ़ैसला कर लिया!’

नितिन हैरानी से उसे देखता रह गया। उसके दिमाग में तूफ़ान उठ रहे थे... ‘इतनी गंभीर और अच्छी लड़की की शादी टूट गयी... समय ने इसे कितना समझदार बना दिया, कि रिश्ते की कमी के लिए रोती नहीं फिर रही... उलटे, अब और भी हंसमुख और ज़िंदादिल हो गयी है... लेकिन दिल में कहीं तो टीस उठती ही होगी... ओह! क्या इसीलिए मुझपर भी ‘बहनजी’ वाला व्यंग्य किया था?’

नितिन अभी अपने विचारों में खोया ही हुआ था कि अंकिता एक बार फिर हँसी और आगे बोली, ‘अच्छा ही हुआ न, उसने मुझे छोड़ा, तो मैंने ये काम पकड़ लिया... और देखो, आज मैं आत्मनिर्भर हूँ! है कि नहीं?’

नितिन ने धीमे से सिर हिलाया। स्पष्ट था कि भीतर ही भीतर वह विचारों में खोया हुआ था।

‘अरे, कहाँ खो गए?’ कुछ देर उसे ध्यान से देखते रहकर अंकिता ने उसे झकझोरा।

‘नहीं... कुछ नहीं...’ उसके मन के भीतर खलबली मची हुई थी, लेकिन वह उसे बाहर नहीं आने दे रहा था।

‘मेरी तो पूछ ली, अपनी बताओ, शादी हो गयी? और बच्चे-बच्चे कितने हैं?’ पूछकर फिर से हँसी।

उसकी शरारत भरी हँसी पर नितिन भी हँस पड़ा और उसी के अंदाज़ में सवाल पर सवाल जड़ दिया, ‘तुम्हें मैं शादीशुदा लग रहा हूँ?’

इस बार दोनों ही हँस पड़े।

‘ओह! मुझे तो लगा कि अब तक बाल-बच्चेदार हो गए होगे, इसीलिए इतने बदल गए हो!’ सुनकर नितिन बस मुस्कुरा दिया।

‘वैसे... बताना चाहोगे, क्यों नहीं की शादी?’ और इस बार अंकिता ने शरारत से नितिन के शब्द दोहराए, ‘अगर मुझे बता सको तो...’ और उसकी ओर देखते हुए शरारत से हँस पड़ी।

नितिन शांत नज़रों से उसे देखता रहा। जवाब देने के लिए जैसे शब्द जुटा रहा था, लेकिन वे शब्द जाने कहाँ खो गए थे। उसकी खामोश नज़रें अब अंकिता को असहज बनाने लगीं। हैरानी से कुछ देर उसकी ओर देखती रही, फिर उतनी ही ज़िन्दादिली के साथ बोली, ‘नहीं बताना चाहते तो कोई बात नहीं... इतना सीरियस भी होने की कोई ज़रुरत नहीं है!’

‘नहीं अंकिता, ऐसी कोई बात नहीं...’

‘फिर?’

‘वो... दरअस्ल, मेरे टाइप की कहीं खो गयी थी...’ कहकर अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराया।

‘ओहो! इतना सीरियस मामला! मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम इतने गंभीर भी हो!’ अंकिता रह-रहकर खुद भी हँस पड़ती और उसे भी हँसाने की कोशिश करती रही, ‘वैसे, खो गयी थी तो खोज लेते! कहाँ खो गयी थी? और, कौन थी वो ‘तुम्हारे टाइप वाली’?

बेतुके सवालों की झड़ी लगा दी थी उसने। सहसा नितिन की खामोश नज़रें मुस्कुरा पड़ीं। बेपरवाही से दूसरी ओर देखते हुए बोला, ‘थी एक... बहन जी टाइप!’

‘अच्छा जी! तो उस बहनजी टाइप में आपको क्या नज़र आ गया?’ अंकिता ने झट से चुटकी ली।

नितिन गंभीर हो गया। कॉफ़ी की आखिरी चुस्की लेकर कप वापस रखते हुए बोला, ‘नज़र तो बहुत कुछ आया। खुद भी उसकी नज़रों में आने की बहुत कोशिश की... लेकिन क्या करूँ... कभी भाव ही नहीं देती थी!’

कहकर अंकिता की आँखों में झाँका। निगाहें मिलते ही अंकिता की पलकें झुक गयीं। इस बार बिंदास बनने का अभिनय न कर सकी। कॉफ़ी की चुस्कियों में अपनी झिझक छुपाने की कोशिश कर रही थी। नितिन ने मेनू कार्ड पर नज़र गड़ा दी और विषय बदलने के प्रयास में, ‘कुछ और मंगाऊँ?’ पूछा। उसे डर था कि कहीं अंकिता उसकी भावनाओं को हँसी में न उड़ा दे।

अंकिता ने उसके सवाल को कोई महत्त्व ही नहीं दिया, और पलटकर पूछा, ‘मेरी किस्मत पर तरस खाकर खुश करने की कोशिश कर रहे हो?’

‘तरस? हाँ, क्यों नहीं?’ नितिन व्यंग्य से हँसा, ‘तरस तो खुद पर आया था जब हर रोज़ तुम्हारी नानी के घर के चक्कर काट-काटकर निराश लौटता था... किसी से भी कभी पता ही न चल सका कि तुम कहाँ चली गयी... उस वक़्त ऐसा लगा था जैसे...’

नितिन अब तक अतीत की यादों में खोने लगा था। उसके शब्द उसका साथ छोड़ने लगे थे, आँखें नम होने लगी थीं, लेकिन आज की बिंदास अंकिता की हँसी से बचने के लिए एकदम से मुस्कुरा दिया।

लेकिन इस बार वह गंभीर थी, ‘पहले तो कभी ऐसा कुछ नहीं जताया?’

‘पहले कभी सोचा ही न था कि तुम ऐसे अचानक छोड़कर चली जाओगी।’ इस बार नितिन ने झटपट जवाब दिया।

बरसों की दबी हुई भावनाएँ आज बाहर आ गयीं थीं। दोनों न जाने कितनी देर तक ख़ामोशी से एक दूसरे को देखते रहे। मानो खुद को समझ रहे हों, और खुद को ही समझा रहे हों... मानों एक-दूसरे की ख़ामोशी सुन रहे हों...

‘क्या मैं ये समझूँ, कि जैसे अचानक छोड़ गयी थी, वैसे ही अचानक वापस भी आ गयी हो? कभी न जाने के लिए?’

अंकिता की आँखों में सहमति थी। पता ही न चला कब उसके हाथ नितिन के हाथों में थे।

समय सचमुच सबसे बड़ा होता है। जो कभी अपने अनकही भावनाओं को दिल में छुपाये सहसा बिछड़ गए थे, आज सहसा ही वे फिर मिल गए थे।

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Posted by Garima Sanjay on Sunday, April 22, 2018