छेड़खानी से बलात्कार तक…

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते....

नारी का सम्मान करने के नाम पर हमारे स्कूलों की पाठ्य-पुस्तकों में यह सूक्ति पढ़ाई जाती थी...

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः”

यानी, जहाँ नारी की पूजा होती है, अर्थात् नारी का सम्मान होता है, वहीं देवताओं का वास होता है। ऐसी ही और भी बहुत सी सूक्तियाँ, श्लोक आदि पढ़ाये जाते रहे हैं। नारी का सम्मान करना सिखाया जाता है, ताकि कोई नारी पर कुदृष्टि न रखे, उसके साथ दुर्व्यवहार न करे।

लेकिन वास्तविकता यह है कि आज अधिकतर लोगों के मन में नारी क्या, किसी भी व्यक्ति के लिए सम्मान भाव हैं ही नहीं।

स्वार्थ है, लालच है, क्रोध है, ईर्ष्या है, स्पर्धा है, दंभ है, वासना-युक्त प्रेम भी है, लेकिन प्रेम-पूर्ण सम्मान कहाँ है?

सम्मान भाव का यही अभाव कहीं लड़कियों को छेड़ने की शक्ल में नज़र आता है, तो कहीं अश्लील टिप्पणियाँ करने की, कहीं बलात्कार जैसी वीभत्स घटनाओं में पूरे समाज को डरा देता है तो कहीं घरेलू हिंसा का रूप ले लेता है।

गहराई से सोचें तो खुद पुरुष भी पुरुषों का सम्मान नहीं करते, तो वे महिलाओं का सम्मान कहाँ से करेंगे? बदले में महिलाएँ भी पुरुषों का कितना सम्मान कर पाती हैं? मोह-ममता के कारण ‘मेरे पति, मेरे भाई, मेरे भतीजे, मेरे बेटे’ भले ही कर लें, लेकिन क्या पुरुष नाम की प्रजाति का सम्मान कर पाती हैं? संदेह है।

पुरुषों में यह स्थिति थोड़ी और भी विकट है। इनमें बहुत से स्वघोषित विद्वान जो हैं! सभी बिलकुल भी नहीं, लेकिन बहुत बड़ी संख्या में पुरुषों का अहम् इतना बड़ा होता है कि उन्हें अपने सामने किसी महिला का बोलना भी नापसंद होता है!

जैसे महिलाओं में मातृत्व का सहज भाव होता है, उसी तरह पुरुषों में भी संरक्षण के भाव सहज ही होते हैं।

लेकिन अपनी बहन-बेटियों का संरक्षण करते समय जब उनपर पाबंदियाँ लगाते हैं, तो शायद खुद ही विचार नहीं कर पाते कि वे खुद ही उन बहन-बेटियों को समाज से डरना सिखा रहे हैं। क्या ऐसे डर के साथ वे बहन-बेटियाँ सहजता से जी सकती हैं? क्या उन डरी-सहमी बहन-बेटियों के मन में किसी के लिए सम्मान आ सकता है? जिसके लिए मन डरा हुआ है, उसके लिए सम्मान कैसे आ सकता है? ऐसे मन में या तो नफ़रत आएगी या फिर आत्म-रक्षा के लिए प्रतिरोध!

पूरे समाज में एक अजब से युद्ध का सा माहौल बना रहता है, जिसकी शुरुआत घर से ही, “तुम चुप रहो... आप चुप रहिये...” से होती है। बात पति-पत्नी की मीठी नोंक-झोंक की नहीं है... बात है, समय-असमय कहीं भी किसी का अपमान कर देने की प्रवृत्ति की। खुद को बड़ा, श्रेष्ठ साबित करने की तलब की!

दरअसल, बात सम्मान करने की भी नहीं है... यदि समाज में बराबरी है, तो बात तो है सद्भावना रखने की।

सद्भावना कि, ‘जैसे मेरी बहन-बेटी की इज्ज़त मुझे प्यारी है, वैसे ही दूसरे की बहन-बेटी की इज्ज़त का हम सम्मान करें’....

लेकिन असल दुनिया में ऐसी सद्भावना कहाँ होती है? यह तो कोरी कल्पना ही है!

सच्चाई तो यह है कि ‘माँ की... बहन की...’ जैसे महान शब्दों का धुरंधर उपयोग करने वाले किसी भी व्यक्ति के मन में किसी महिला के लिए क्या, किसी भी अन्य व्यक्ति के लिए सद्भावना संभव नहीं।

उनकी मानसिकता ही कुछ इस तरह से विकसित हुई है, जिसमें किसी भी इन्सान के लिए कोई सद्भावना नहीं। शायद खुद के लिए भी नहीं?

वास्तव में, ऐसे लोगों के मन में खुद के लिए भी कोई सम्मान नहीं होता।

एक बार खुद ही सोचें, किसी भी उम्र की लड़की या महिला के पीछे भागने से, उसका पीछा करने से, अश्लील आवाज़ाकशी करने से, वासनापूर्ण निगाहें डालने से या जबरन उसे पाने की कोशिश करने से क्या आप उसके मन में किसी भी तरह अपने लिए सम्मान के भाव जगा सकते हैं? असंभव है।

ऐसे में तो आप बस वितृष्णा और घृणा के पात्र बनेंगे, और उस महिला के साथ-साथ समाज में और भी न जाने कितने लोगों की नज़रों से खुद को गिराएंगे।

जब आप किसी की नज़रों से गिरने की इतनी कोशिश खुद ही कर रहे हैं, तो स्पष्ट ही है कि आपके मन में आत्मसम्मान ही नहीं! जब आत्मसम्मान नहीं, तो दुनिया में किसी भी अन्य इन्सान के लिए कैसे कोई सम्मान हो सकता है?

‘सर्वत्र कोई सम्मान नहीं’ के इस सामाजिक युद्ध के माहौल में कुछ सुखद अनुभूतियाँ भी दम तोड़ने लगती हैं।

वे अनजाने लोग जो कभी सहज-भाव से बहना, दीदी, बुआ, मासी, या दोस्त, और यहाँ तक की ‘माँ’ के संबोधन के साथ समाज का बेहद ख़ूबसूरत पक्ष तैयार करते हैं, कहीं खोने लगते हैं...

डंडा लेकर एक-दूसरे पर प्रहार करने को तैयार स्त्री-पुरुष के इस युद्ध में ये सुमधुर रिश्ते भी विलुप्त होने लगते हैं।

 

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