आरक्षण— किसने क्या खोया, क्या पाया?

माना कि कभी अतीत में जात-पांत के नाम पर तथाकथित सवर्णों ने तथाकथित दलितों पर बहुत अत्याचार किये…
कई बार सोचा, पर समझ नहीं सकी… पता नहीं किसने कुछेक लोगों को सवर्ण की उपाधि धारण करने का और कुछेक को दलित कह देना का अधिकार दिया!
 
लेकिन फिर भी, जाति के आधार पर आरक्षण देने की व्यवस्था कभी गले से नीचे नहीं उतरी। क्या यह नहीं होना चाहिए था कि समाज में पिछड़े रह गए सभी वर्गों को आगे लाने के लिए उन्हें शिक्षा की सुविधाएँ दी जातीं? उनके लिए फ़ीस में छूट, लाइब्रेरी आदि की सुविधा दी जाती!
लेकिन शायद इस व्यवस्था से किसी का राजनीतिक उद्धार न हो पाता…
इसीलिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी, ताकि इस बहाने ठोस वोट-बैंक तैयार किया जा सके।
 
वैसे भी, इतने वर्षों के आरक्षण ने क्या किया?
क्या जातिगत दूरियाँ कम हो गयीं?
क्या तथाकथित दलितों का उद्धार हो गया?
बल्कि आज भी अनेक परिवार अकल्पनीय रूप से दयनीय स्थिति में जी रहे हैं।
 
ऐसे अनेक परिवारों के बच्चों को मैं खुद जानती हूँ, जिनका पारिवारिक स्तर हम आम जनों से कहीं से भी कम नहीं है, लेकिन वे आरक्षण का लाभ लेकर बेहतर कॉलेज में प्रवेश पाते हैं, फिर नौकरी भी पा लेते हैं… सोचने वाली बात है, वे किस तरह से दलित होंगे?
और, यदि वे दलित तो हम क्यों नहीं?
 
दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले दलों की असल नीयत उनके वोट-बैंक भी समझ नहीं पाते…
कुछ ही दिनों पहले उत्तर प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों के दौरान तथाकथित दलितों की महारानी के महल के गेट की तस्वीरें न्यूज़ चैनलों पर नज़र आई।
दुःख होता है कि उन्होंने जिनके नाम पर राजनीति करके इतना बड़ा महल खड़ा किया उनमें से अधिकाँश तो अभी भी बुरी स्थिति में हैं… फिर भी उम्मीद के साथ उन्हें वोट देते रहते हैं कि कभी न कभी उनकी स्थिति में सुधार होगा।
 
लेकिन साथ ही उनका क्या, जो कहने को तो तथाकथित सवर्ण हैं, जिनके परिणामस्वरूप मशीन बनकर पढ़ाई करते हैं…
घर में दाल-रोटी के लिए भी पर्याप्त पैसे नहीं, लेकिन उसके बावजूद शिक्षा में कोई छूट नहीं! नौकरी में कोई सुविधा नहीं!
 
यही काफ़ी नहीं, हर बार अधिक अंक पाने के बावजूद बहुत से बड़े कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल पाता क्योंकि कोई आरक्षित उनकी सीट भी ले जाता है, और साथ ही शिक्षा का अधिकार भी, और फिर आगे चलकर नौकरी का अधिकार भी छीन लिया जाता है!
 
आज सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद दंगे करने या करवाने की बात स्वाभाविक ही है…
परिवार में भी जिन बच्चों को बिना प्रयास सबकुछ मिलता रहता है, वे ज़िद्दी हो ही जाते हैं।
लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि क्या दंगों को पीछे सचमुच आम जन हैं, जिनके हित प्रभावित होंगे?
या फिर, उन्हें भी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए उकसाया ही गया है?
 
लेकिन दुखद यही है, कि कोई भी सामाजिक एकता की बात न करता है, और न ही समझता है…
शायद कोई समझना चाहता ही नहीं!

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