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“नशा” – कहानी

13 August 2018 garimasanjay

नशा

 

‘पुड़िया है क्या, यार?’ ‘अबे, थोड़ा माल दे...’

कॉलेज में पीछे के ग्राउंड में कोने की चाय की दूकान के पीछे झाड़ियों और पत्थरों से एक टीला सा बना हुआ है। मेरी दो क्लास के बीच समय था और उस दिन मैं घर से बहुत जल्दी आ गया था। चाय की यह दूकान मेरी क्लास के पास पड़ती है, तो बस यहीं चाय के साथ कुछ खाने के इरादे से मैं वहाँ आया था। चाय का ऑर्डर देकर खड़ा ही हुआ था कि उन पत्थरों के पीछे से फुसफुसाती आवाज़ें सुनकर मेरे कान अचानक सतर्क हुए।

मैं जानता था कि ड्रग्स लेने वाले नशे की चीज़ों को ही ‘पुड़िया’ ‘माल’ जैसे नामों से पुकारते हैं। मैं पलटा। देखा उधर तो कुछ जानी-पहचानी आकृतियाँ ही थीं। मेरे ही कुछ साथी उधर पत्थरों पर बैठे थे। मैं हैरान भी था और उत्सुक भी। तो क्या मेरे साथी ड्रग्स लेते हैं? कुछ सोच-समझ पाता, इससे पहले ही कदम उस ओर बढ़ गए। राहुल, समीर, विनय, और कुछ और लड़कों के साथ कुछ लड़कियाँ भी थीं। मालिनी और सुप्रिया को तो मैं दूर से ही पहचान गया।

‘क्या कर रहे हो यार, तुम लोग?’ पास पहुँचने पर मैंने लापरवाही से पूछा। मेरे दोस्त मुझसे भी अधिक लापरवाह। कुछ ने तो मुझे देखा तक नहीं, और कुछ ने देखकर भी मुंह मोड़ लिया। एकाध ने हिकारत भरी एक नज़र डाली और अपने नशे में वापस व्यस्त हो गए।

‘आ जा, कुछ लेगा?’ समीर ने पूछा ही था कि मैंने हाथ से ही मना कर दिया और वहीं उनके बीच जा बैठा। वे जो धुँआ कर रहे थे, उसकी महक मेरी भी नाक में जा रही थी।

‘क्या यार! कैसे मज़ा आता है तुम्हें इसमें? मेरा तो दम घुट रहा है यहाँ...’

‘क्यों? इसमें क्या बुराई है? भोलेनाथ का प्रसाद है ये!’ रोहन ने ज्ञान बघारा तो मैं हँस पड़ा।

कॉलेज फ़ाइनल इयर में आते आते मैं एकाध सुट्टा मारना सीख गया था, और दोस्तों के साथ कभी-कभार बीयर और स्कॉच भी ली थी। लेकिन इन चीज़ों को मैंने केवल नशे की ही चीज़ें माना था, कभी उन्हें भोलेनाथ से या धर्म से जोड़ने की कोशिश नहीं की थी। उस समय भी मैं समझता था, और आज भी जानता हूँ, कि अपने नशे की गलत आदत को सही साबित करने के लिए लोग उसे धर्म और ईश्वर तक से जोड़ने की कोशिश कर डालते हैं। इतने आत्मविश्वास के साथ कि सामने वाला सोच में ही पड़ जाए कि शायद वे ही सही कह रहे हैं। खैर, मेरे साथ ऐसा नहीं था, इसलिए मैंने पलटकर सवाल कर डाला...

‘अच्छा? भोलेनाथ का प्रसाद? और ये ज्ञान आपको कहाँ से आया?’

मेरा व्यंग्य मेरे दोस्तों को कतई पसंद नहीं आया। समीर, विनय और राहुल उस समय तक पूरी तरह नशे में नहीं थे, तो उनका होश बरकरार था, और साथ ही बरकरार थे उनके तर्क, उनके कुतर्क और उनका स्वाभिमान! तो बस, मेरा व्यंग्य सुनते ही उखड़ गए और इंटरनेट से बंटोरे अपने ज्ञान को मेरे सामने बघारने लगे।

‘तुझे पता भी है, क्या है ये?’

‘जानता हूँ, नशा है... जो इंसान को केवल बीमार और बर्बाद ही करता है।’

मेरी आवाज़ में स्थिरता थी और सख्ती भी।

वो सख्ती किसी से भी बर्दाश्त न हुई। पलटकर मेरे अहम् पर वार करने की भरपूर कोशिश की गयी... ऐसा वार, जो हमेशा ही युवाओं पर बहुत अच्छे से काम करता है, “अबे, तू इतना डरपोक और फट्टू है, कि इस मज़े को कभी समझ ही नहीं सकता।”

मैं अपनी हदें भी अच्छी तरह से जानता था और इस तरह के पैंतरे भी।

“भाई, मैं डरपोक और फट्टू ही सही। लेकिन कुछ समय के मज़े के लिए बाक़ी की सारी ज़िन्दगी बीमारी और लाचारी में बिताने का कोई शौक नहीं है मुझे।”

इस बार मैं कुछ अधिक सख्त था, और मेरे दोस्त इसके लिए तैयार नहीं थे। वे नशा करने में ढीठ थे तो मैं नशे को मना करने में। लेकिन वे मेरे आगे हार मानने को भी तैयार नहीं थे। भले ही अब मेरे अहम् को चोट करने की कोशिश नहीं की, लेकिन अब वे तर्क से खुद को सही सिद्ध करने पर ज़रूर उतर आये।

‘अच्छा बता, तुझे क्या लगता है ये खराब क्यों है?’ विनय ने मुझसे सीधा तर्क किया।

‘भाई! लंबे तर्कों पर क्यों जाता है? सीधी सी बात समझते हैं... अगर ये खराब न होती तो सरकार इसे बैन क्यों करती? डॉक्टर इसे लेने से मना क्यों करते?’

‘बस इतना ही पता है तुझे!’

मैं खुद को बुद्धिमान मान रहा था, लेकिन वे मुझे निरा मूर्ख और खुद को ज्ञानी सिद्ध करने के लिए पूरी तरह से तैयार हो चुके थे।

पता नहीं इस बार मेरा अहम् आहत हुआ या उनके कुतर्क ने चिढ़ा दिया, लेकिन मैंने तपाक से कहा, ‘मुझे नहीं पता तो तुम ही बता दो...’

‘भाई, कोकेन, हेरोइन की बात मैं नहीं करता, लेकिन वीड, यानी गाँजा और भाँग पूरी तरह से ऑर्गेनिक है... सिगरेट और शराब से अधिक खराब नहीं है।’ मेरी कमी तो वे जानते ही थे। जानते थे कि सिगरेट और शराब से मुझे ख़ास ऐतराज़ नहीं था। विरोध क्या करता, मैं तो खुद भी कभी-कभी ले ही लेता था।

हाँलाकि यह भी सच था कि मैंने इन चीज़ों को भी लत नहीं बनाया था। फिर भी, दूरी भी तो नहीं रखी थी।

तो इसके साथ ही, मुझे कम से कम आधे-एक घंटे तक सिगरेट-शराब के साथ गाँजे का तुलनात्मक अध्ययन सुनना पड़ा, गाँजे और भाँग की विशेषताओं और उसके लाभों पर लेक्चर सुनना पड़ा। उस दिन समझ में आया कि ये ज्ञानी केवल नशा ही नहीं करते, उस नशे के बारे में पूरी रिसर्च भी करके बैठे हैं।

“तुझे पता भी है, यह जड़ी-बूटी से बनती है? जानता है, शराब और सिगरेट से भी अधिक सेफ़ है ये... लेकिन ये तो तू जानता ही होगा कि सिगरेट और शराब की इंडस्ट्री में बड़े-बड़े उद्योगपतियों का पैसा लगा है, इसीलिए उसे कोई बैन नहीं करता...”

उनकी सारी बातें मैंने सुनी। कुछ का विरोध किया तो कुछ चुपचाप सुनी। उन्हें तो कुछ न समझा सका, लेकिन खुद ज़रूर एक बात समझी कि जिन्हें नशा करना ही होता है, वे किसी की नहीं सुनते। उलटे, अपने पक्ष में दुनिया भर की दलीलें इकट्ठी करके रखते हैं। मैं जानता था कि उनमें से ज़्यादातर बहुत ही काबिल लड़के-लड़कियाँ थे। इतने तर्क, इतनी रिसर्च भी वे तभी कर सके थे क्योंकि उनके दिमाग तेज़ थे। लेकिन देख रहा था कि उस तेज़ दिमाग को वे नशे की लत में कुंद करने की पूरी तैयारी में थे। जिस तेज़ दिमाग से वे दुनिया जीत सकते थे, किसी भी क्षेत्र में अपना नाम रौशन कर सकते थे, उसी दिमाग को वे नशे की लत में डुबोकर खुद ही सुस्त बना रहे थे, नाकारा बना रहे थे।

***

कॉलेज छोड़े दस साल से अधिक हो गए। आज सुकून है, कि मैं इनमें से किसी भी नशे की लत में नहीं पड़ा। लेकिन अपने दोस्तों को उनकी नशे की लत से उबार भी नहीं सका। उनके तर्कों-कुतर्कों का ढंग से जवाब नहीं दे सका। शायद इसलिए कि उस समय उम्र भी इतनी नहीं थी, और अधिकार से अपनी बात रखने का तजुर्बा भी ख़ास न था। शायद इसलिए भी कि उनकी संख्या के आगे मैं अकेला पड़ गया। शायद इसलिए भी, कि वे जो कर रहे थे, वही उस उम्र के हिसाब से ‘हेप’ था, फ़ैशन में था, चलन में था।

और, आज उन्हें किसी भी तरह का कोई जवाब देने की ज़रुरत ही नहीं है। बल्कि, कहना चाहिए कि वे इस स्थिति में ही नहीं रहे कि कोई भी जवाब उन तक पहुँच सके।

इतने वर्षों में कुछ को सिगरेट के नशे से फेफड़े खराब करते देखा, तो किसी को शराब के नशे में लीवर सड़ाते देखा। और तो और, नशे के चक्कर में करियर खराब करके धन-दौलत से भी बर्बाद होते देखा।

और, ड्रग्स का तो कहना ही क्या! जो इसके आदी हुए, उनका दिमाग तो कुछ सोचने-समझने के लायक ही न रहा। गाँजे पर ज्ञान बघारने वाले आज कहाँ धुँआ हो चुके हैं, कुछ पता नहीं! लेकिन मैं तब भी उन्हें कुछ नहीं समझा पाया था, और आज तो वे कुछ भी सुनने-समझने के लिए बचे ही नहीं!

विद्यार्थी जीवन में मैं टॉपर नहीं था, लेकिन काफ़ी होनहार था। लेकिन मेरे वे दोस्त भी कुछ कम नहीं थे। कुछ मेरे जितने, कुछ मुझसे थोड़े ही कम और कुछ मुझसे अधिक होनहार थे। अंतर केवल इतना है कि जहाँ मेरे जैसे अनेकों ने नशे से दूरी बनाकर रखी, वहीँ उन्हें किसी न किसी नशे की लत ने पकड़ लिया। इतने वर्षों में तुलना करूँ तो आज मैं काफ़ी सफल इंसान हूँ, अच्छी नौकरी, पत्नी, परिवार... जो कुछ भी एक आम इंसान के लिए संभव होता है, वह सभी कुछ है। लेकिन मेरे वे दोस्त आज नशे की गर्त में जाने कहाँ खो चुके हैं।

आज मैं जी रहा हूँ, बस एक तकलीफ के साथ कि मेरे वे सारे दोस्त मर रहे हैं! ऐसा नहीं कि मेरी कोई समस्याएँ नहीं, कोई परेशानियाँ नहीं। लेकिन अपनी उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मेरा होश बरकरार है। मेरा दिमाग मुझे राह दिखा पाता है और शरीर साथ दे पाता है।

उस समय भी जानता था, आज भी जानता हूँ, नशा किसी भी चीज़ का हो, केवल बर्बादी ही लाता है। फिर चाहे वो सिगरेट का नशा हो, या शराब का और या फिर गाँजा, भाँग, चरस, कोकीन आदि का। लेकिन बस अफ़सोस ही है कि समय रहते किसी भी अपने को समझा नहीं सका कि पहले हम इनका सेवन करते हैं, और धीरे-धीरे, गहराई से ये हमारे दिमाग को खोखला करते हैं, हमारे शरीर को खोखला करते हैं... न हम अपने रह जाते हैं, न परिवार के और न ही किसी काम के!

बस... ऐसा लगता है कि दुनिया में आये, नशा किया, और चले गए! तो क्या, इस ज़िन्दगी की बस इतनी ही कीमत है?

***

 

नशे की चर्चा चलते ही, अक्सर कुछ लोग आत्म-रक्षण पर उतर आते हैं,तो कुछ आक्रमण के मूड में आ जाते हैं।यों तो सभी को चुनाव...

Posted by Garima Sanjay on Friday, August 10, 2018

Posted in: From Facebook, Society- As I See it समाज-मेरी नज़र से, मेरी कहानियाँ Filed under: #Drugs, #HindiStory, #Story, #Youth, #कहानी, #नशा, #हिंदीकहानी

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