वैलेंटाइन / वसंतोत्सव

फ़रवरी का महीना आते ही स्कूल-कॉलेज, बाज़ार, पार्क आदि में वैलेंटाइन सप्ताह मनाने की खुशनुमा शुरुआत हो जाती है। एक ओर प्रेम से भरे युवा दिल इस समय अपने प्रेम की अभिव्यक्ति खूब खुलकर करते हैं, वहीं इस उत्सव का विरोध भी खूब बढ़-चढ़कर होता है। भारतीय संस्कृति के अनेक संरक्षकों को महसूस होता है कि यूँ उन्मुक्त, तरीके से सरेआम प्रेम का प्रदर्शन करना संस्कृति के लिए अच्छा नहीं है। इससे जहाँ छोटे-बड़ों के बीच शर्म-लिहाज का पर्दा हटता है, वहीं छोटे बच्चों पर इस तरह का प्रदर्शन बुरा असर डालता है।

व्यक्तिगत बात करूँ, तो कुछ हद तक बात सही लगती है... मर्यादा का उल्लंघन शोभनीय तो सचमुच नहीं होता चाहे वह होली खेलने के बहाने लांघी गयी हो, और चाहे वैलेंटाइन डे मनाने के बहाने।

व्यक्तिगत रूप से मुझे न मर्यादा लांघना सही लगता है, और न ही ऐसे लोगों को रोकने के लिए लिए डंडे बरसाना! मर्यादाओं में रहना तो एक पारिवारिक और व्यक्तिगत दायित्व है, कि व्यक्ति खुद ही विचार करे, और शालीनता के अपने नियम भी खुद ही बनाए।

आखिर, आप अपने बेडरूम में पहनने वाले कपड़ों में अपने ऑफ़िस, कॉलेज या सभा में तो नहीं जाते न? यदि आप जाएँ तो कोई आपको रोक नहीं सकता, लेकिन ये नियम अपने व्यक्तित्व की शालीनता को ध्यान में रखते हुए आपने खुद ही बनाए हैं। वैसे ही कुछ नियम अपने बुज़ुर्गों और समाज के अधखिले फूल समान बच्चों के लिए बना लें, तो बुराई क्या है? समाज का दायित्व भी तो हमारा ही अपना है!

वैलेन्टाइन डे हो, या वीक (सप्ताह), प्रेम का पर्व है, और हमारा भारत देश पर्वों का ही देश है। हम उत्सव-प्रिय सामजिक लोग हैं, जो कैसी भी स्थिति में विविध उत्सवों-पर्वों आदि के ज़रिये आपसी मेलजोल, प्रेम और सौहार्द के बहाने खोज ही लेते हैं।

सबसे बड़ी बात तो यह कि वसंतोत्सव के रूप में ऐसा ही पर्व हमारे यहाँ प्राचीन काल से मनाया जा रहा है। अनेक प्राचीन ग्रंथों और शास्त्रों जैसे ‘सरस्वती कंठाभरण,’ ‘मात्स्यसूक्त’ और ‘हरी भक्ति विलास’ आदि में भी इसका वर्णन मिलता है।

‘वैलेन्टाइन’ और ‘वसंतोत्सव’ दोनों नाम में ज़रूर थोड़ा अंतर है, समय के अनुसार दोनों की प्रकृति में भी थोड़ा-बहुत अंतर है, लेकिन यदि गौर करें तो दोनों ही मूल रूप से प्रेम और उल्लास के पर्व हैं।

हमारे यहाँ वसंतोत्सव का आरंभ माघ माह में वसंत पंचमी के दिन से होता है। मकर संक्रांति में सूर्य के उत्तरायण होने के बाद जब ठंड से ठिठुरते उत्तर भारत को कुछ राहत मिलती है, तो इसका प्रभाव प्रकृति पर भी व्यापक रूप से दिखाई देता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे बर्फ़ की सर्द रज़ाई के भीतर सोई प्रकृति अंगड़ाई लेकर जाग गयी हो।

पेड़-पौधों की पत्तियों पर जमी बर्फ़ीली परत हट जाती है, और उनमें हरियाली चमक आ जाती है। धरती पर चारों ओर रंग-बिरंगे फूलों की सुहावनी छटा बिखर जाती है और उनपर झूमते कहीं काले-भौरे तो कहीं लाल-पीली, हरी नीली तितलियाँ मन को सहज ही मोह लेती हैं। बर्फ़ीली सर्दी में अपने-अपने घोसलों में छुपी चिड़ियाँ भी सूर्य की चमक के साथ ख़ुशी से चहक उठती हैं। ऐसे मनोहारी मौसम में मानव मन में उमंग का संचार स्वाभाविक ही है।

वसंत पंचमी के दिन माँ सरस्वती की पूजा के साथ वसंतोत्सव का आरम्भ होता है। लोग पीले वस्त्र धारण करते हैं और कई जगह आज भी इस दिन गीत-संगीत का आयोजन होता है। इसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाते हैं और होली, धमार आदि गाते हैं। इसके साथ ही हमारे यहाँ वसंत ऋतु का आगमन होता है... ऐसी मनमोहक ऋतु जिसकी छटा अनायास ही मानव मन को प्रेम और उल्लास से परिपूर्ण कर देती है।

वैलेंटाइन वीक में जहाँ कभी रोज़ डे मनाते हैं तो कभी चॉकलेट डे, टेडी डे मनाते हैं, वहीँ वसंतोत्सव में भी सरस्वती पूजा से शुरू करके नित्य नए-नए रंगारंग कार्यक्रम होते हैं, जिसमें गीत-संगीत की मधुरिम संध्या सजती हैं, रंगोल्लास को धूमधाम से मनाया जाता है।

कभी-कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे हम कहीं इन उत्सवों को मनाना भूल गए, और विदेशों में उन्होंने इसे कुछ नए ढंग से अपना लिया। इसमें कोई बुराई तो नहीं? बल्कि यह तो बहुत ही खूबसूरत बात है... हम भी अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को आधुनिक युवाओं के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत कर सकते हैं, उसे पुनर्जीवित कर सकते हैं।

हो सकता है आपको हास्यास्पद लगे, लेकिन मुझे लगता है कि इस सुन्दर ऋतु का स्वागत वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा के साथ करने की परम्परा इसलिए अपनाई गयी होगी, ताकि इस मधुमास में हमारा मन संयमित रहे, बहककर छलक न जाए!

प्रेम तो मानव समाज का आधार है, प्रेम-रहित संसार तो निष्प्राण ही होगा, लेकिन सार्वजानिक स्थलों पर प्रेम का प्रदर्शन भी तो संसार को जंगल-जैसा बनाता है और हमें पशु-समान! आखिर, पशुओं से खुद को श्रेष्ठ रखने के लिए हमें अपना व्यवहार उनसे श्रेष्ठ रखना होगा, न कि उनपर अपनी शक्ति प्रदर्शन करके हम उनसे श्रेष्ठ साबित हो सकते हैं।

यह भी मेरी व्यक्तिगत सोच ही है कि इस सुन्दर ऋतु का आनन्द लेने के लिए फूलों की सुन्दरता को उनके प्राकृतिक स्थानों पर ही रहने दें... डाली से टूटे हुए फूल तो कुछ ही पलों में मुरझा जाते हैं, जबकि डाली पर झूमते फूल कम से कम कुछ दिन तो मुस्कुराते हैं, और साथ ही हमारी आँखों को भी सुख पहुंचाते हैं। प्राकृतिक असंतुलन के वर्तमान दौर में प्रकृति के संरक्षण में हम जितना साथ दे सकें, उतना हमारे लिए ही बेहतर होगा।

तो चाहे हम वसंतोत्सव मनाएँ, या वैलेंटाइन... प्रयोजन तो वसंत ऋतु का स्वागत सत्कार करना ही है, प्रेम और उल्लास से झूमना ही है, न कि सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम का असभ्य प्रदर्शन करना या प्रेमियों पर डंडे बरसाना?

2 thoughts on “वैलेंटाइन / वसंतोत्सव”

  1. दी ना तो प्रेम बुरा है ना प्रेम करने वाले अपनी मर्जी से साथी का चयन भी ठीक है पर कम से कम इतनी समझदारी तो विकसित हो जाये कि अपने स्वभाव के अनुरूप साथी का चयन कर सके।
    13, 14 की उम्र का निर्णय पछतावा ही अधिक देता है जबकि 20, 25 का निर्णय सामर्थवान बनाता है।
    मेरी बेटी इस हफ्ते सिर्फ इसलिए स्कूल जाने से कतरा रही है कि स्कूल में बड़ी उल्टी सीधी हरकत हो रही है ये क्या है?? और क्यो है??
    दी ये सिर्फ बाजार है जो पहले आवश्यकता पैदा करता है फिर उसके अनुरूप वस्तु बनाता है और नौजवान होती पीढ़ी को अपना टारगेट या मार्केट।
    वसंतोसव और वैलेंटाइन के भाव मे यही अंतर आ जाता है।

    1. सहमत हूँ। वैसे 13, 14 की उम्र के बच्चों में केवल आकर्षण होता है, जो अक्सर समय के साथ निर्णय में तब्दील भी नहीं होता।
      हमारी उम्र को ये ज़रूर विचित्र लगता है कि अभी स्कूल स्तर पर बच्चे इस तरह का व्यवहार करने लगे हैं… लेकिन बदलते समय के साथ जैसे-जैसे बाहरी दुनिया के साथ बच्चों का exposure बढ़ता है, उनके व्यवहार में इस तरह के बदलाव आते हैं…
      हाँ, इस स्थिति में स्कूल स्तर पर शिक्षकों और अभिभावकों को अधिक सतर्क रहने की ज़रुरत तो हो ही जाती है। स्कूल स्तर पर अनुशासन बढ़ाया जा सकता है… अगर किसी स्कूल में कोई बच्ची ऐसी स्थिति से गुज़रती है, तो बहुत ही दुखद है! उम्मीद है कि शिक्षकों से सम्पर्क करके इसका समाधान निकालने की कोशिश करोगी…
      लेकिन कॉलेज और शेष सार्वजानिक स्थानों पर इस तरह की परिस्थितियों में व्यक्ति को स्वयं ही अनुशासित रहने की ज़रुरत होती है… हम राह चलते व्यक्ति को अनुशासन नहीं सिखा सकते।
      बाज़ार तो ज़रूरतें पैदा करता ही है… यदि उसे ऐसी कला न आये तो किसी भी तरह का व्यापार कैसे हो? बाज़ार में तो बहुत कुछ उपलब्ध है… इंटरनेट पर भी बहुत कुछ उपलब्ध है… हम सबकुछ बंद नहीं कर सकते।

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