खाप ही खाप

‘हमें भागना ही पड़ेगा, और कोई तरीका नहीं है... नहीं, नहीं ये ठीक नहीं! हम अपने घरवालों को मनाएँगे... कोई फ़ायदा नहीं! वे नहीं मानेंगे! उन्हें हमारी शादी मंज़ूर नहीं! वे कभी अपनी मंज़ूरी नहीं देंगे... हमें अलग-अलग जीने पर मजबूर कर देंगे! एक-दूसरे के बिना जीना मुमकिन नहीं! चलो भाग चलें! पता नहीं ये ठीक है या नहीं... मैं अपना घर छोड़कर तुम्हारे पास आ रही हूँ... तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ... जल्दी आओ!’

क्या कुछ ऐसी बातचीत चल रही थी उन दोनों के बीच? क्या परिवार का सहयोग न पाकर दोनों भाग जाना चाहते थे? क्या दोनों सचमुच एक-दूसरे के बिना जी नहीं सकते थे?

दिमाग में कुछ ऐसे ही सवाल, और ऐसे ही हालत लगातार घूम रहे हैं जब से दिल्ली में मात्र तेईस वर्ष के नौजवान, अंकित सक्सेना की हत्या के बारे में सुना है!

सीसीटीवी फूटेज के अनुसार हत्या के कुछ ही मिनट पहले अंकित को फोन पर किसी से बात करते हुए देखा गया। और कुछ ही मिनटों में उसी क्षेत्र में उसकी हत्या कर दी गयी।

मन स्तब्ध है, दिमाग कुंद!

बुझे स्वर में एक सवाल उठता है, आखिर दोनों ने प्रेम करने की हिम्मत ही कैसे की?

दोनों ही जानते थे कि उनके धर्म अलग हैं! फ़िल्मों-कहानियों को अलग रखिये... उसमें तो लेखक-निर्देशक की पसंद के अनुसार सबकुछ संभव हो जाता है। लेकिन यहाँ, यथार्थ के धरातल पर, हमारे जीवन के लेखक-निर्देशक कोई और ही लोग होते हैं... ये आपके कुछ अपने और कुछ अपनों-जैसे होते हैं.. जिनके दिलों में इतना प्रेम नहीं भरा कि आपकी प्रेम-कथा को सुखान्त बना सकें। यहाँ तो हर तरफ़ खाप ही खाप है, प्रेम जैसी पवित्र भावनाओं को नियमों में बाँधती खाप!

हमारे देश में आप दोस्ती किसी के साथ भी करो, मन बहलाव के लिए प्रेम-प्रसंग भी फ़रमा लो! लेकिन सच्चा वाला प्यार... बकवास है! शादी की इच्छा करना... सर्वथा वर्जित है। ऐसी इच्छा तो बस उसके साथ करो जो आपके परिवार, आपके समाज को स्वीकार्य हो। वर्ना, आपको लाइन पर लाने के लिए बैठी है न यहाँ, समाज की एक खाप!

सामाजिक दृष्टि से प्रेम यों भी पंगु होता है... कुछ दूर तक ही चल पाता है। वह तो नफ़रत है, जो बिना पंख भी फरफर उड़ती है!

ध्यान दीजिये... प्रेम छुपाना पड़ता है, पर नफ़रत बेधड़क जताई जाती है!

प्रेम साथ के लिए गिड़गिड़ाता है, नफ़रत को बिन मांगे साथ मिल जाता है।

प्रेम संरक्षण पाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाता है, जबकि नफ़रत को तो बस ज़ुबान चलाने भर की देरी है, पल भर में यहाँ-वहाँ, हर जगह से उसे संरक्षण मिल जाता है।

प्रेम घुट-घुटकर जीता है। कभी-कभी तो जीता भी नहीं, बस साँसे गिनता रहता है। जबकि नफ़रत आज़ाद हवा में कभी दहाड़ती है, तो खिलखिलाती है।

कैसा है मानव का यह स्वरूप? राक्षसी?

न! इन्हें आप अपशब्द नहीं कह सकते! यही तो समाज के कर्णधार हैं। ये नफ़रत फैलाने वाले ही समाज को चलाते हैं। जो समाज चलाते हैं, उनके विरुद्ध एक भी शब्द बोलना आपके लिए भी उतना ही घातक हो सकता है जितना प्रेम करने वालों के लिए।

इसलिए, ऐसे लोग राक्षसी बिलकुल नहीं हो सकते। हाँ, ये व्यापारी ज़रूर हो सकते हैं, जो जानते हैं, कि नफ़रत को बहुत आसानी से बेचा-खरीदा जा सकता है। लेकिन प्रेम! जो बिक जाए, वह प्रेम कहाँ? जिसे खरीदा जा सके, वह प्रेम कहाँ?

हमारे समाज में बुद्धिमान बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि प्रेम की बातें तो बस दो तरह के लोग करते हैं, एक तो मूढ़, और दूसरे छलिया।

वह तो नफ़रत है, जो अक्लमंदों के दिमाग में ठहरती है।

प्रेम तो बचपना है। बच्चों को सही-गलत, अच्छे-बुरे की पहचान ही कहाँ?

वयस्क हुए दिल सही और गलत में अंतर कर पाते हैं। प्रेम के झूठ को झट से पकड़ लेते हैं। प्रेम के मायाजाल को तुरंत तोड़ देते हैं।

समझदार दिलों में तो नफ़रत और द्वेष उपजता है।

नफ़रत के शब्द बड़े ही संक्रामक होते हैं। एक ही आवाज़ में जन-जन तक पहुँच जाते हैं। जबकि प्रेम को तो एक दिल से दूसरे दिल तक पहुँचने में भी कई बार बैसाखियों की ज़रुरत पड़ती है।

यों तो सबकुछ हो ही चुका है। हम कितना भी ढोल बजाएँ, शोर करें, हंगामा करें, अंकित वापस नहीं आ सकता। उससे जुड़े हर इंसान की ज़िन्दगी भी चलती रहेगी। ये बात अलग है कि कुछ लोग थोड़े प्रभावित होंगे, लेकिन समय के साथ उनकी यादें भी धुंधली हो चलेंगी। लेकन वे सब जीते रहेंगे, जिन्होंने द्वेष फैलाया। वे सब भी जीते रहेंगे जो आज संवेदना जता रहे हैं।

लेकिन सवाल यह है कि क्या हम ऐसी घटनाओं से कुछ सबक लेते हैं? आगे के लिए कुछ सबक लेंगे?

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